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________________ - तत्वार्यचिन्तामणिः १३७ अर्थी परिच्छित्ति कर प्रवर्त रहा जीव अर्थक्रियामें विसम्वाद ( असफलता ) को प्राप्त नहीं कराया जाता है। अनुमान से अग्नि, जल, सोपानकी सीढीका निर्णय कर सफल अर्थक्रियायें ठीक ठीक हो जाती हैं। किसी अनुमानाभाससे कहीं चूक हो जानेपर सभी अनुमानोंको बट्टा नहीं लग जाता है । यों तो अनुमानोंसे अधिक प्रत्यक्षाभासोंसे अनेकं स्थलोंपर मिथ्याज्ञप्तियां होतीं देखी 'जाती हैं। एतावता समीचीन प्रत्यक्षोंमें लांच्छन नहीं आ सकता है । वस्तुविषयत्वान्मुख्यं प्रत्यक्षमिति चेत् तत एवानुमानं तथास्तु प्राप्यवस्तुविषयत्वादनुमानस्य वस्तुविषयं प्रामाण्यं द्वयोः इति वचनात् । ततो मुख्ये द्वे एव प्रमाणे प्रत्यक्षमनुमानं चेति केचित् तेषामपि यावान्कश्चिदूमः स सर्वोप्यग्निजन्मानग्निजन्मा वा न भवतीति व्याप्तिः साध्यसाधनयोः कुतः प्रमाणांतराद्विनेति चिंत्यम् । गये हैं। घट है सीप है । प्राप्य वस्तुको ही आलम्बन बौद्ध ही कह रहे हैं कि यदि चार्वाक यथार्थवस्तुको विषय करनेवाला होनेके कारण प्रत्यक्षको मुख्य प्रमाण कहेंगे तो उस ही कारण यानी वस्तुको विषय करनेवाला होनेसे ही अनुमान भी तिस प्रकार मुख्य प्रमाण हो जाओ । हम बौद्धोंने इस प्रकार अपने ग्रन्थोंमें कथन किया है किं प्राप्यवस्तुको विषय करनेवाला होनेसे अनुमानकी वस्तुविषयको जाननेवाली प्रमाणता है । इस कारण प्रत्यक्ष और अनुमान दोनोंमें प्रमाणता आ जाती है । अर्थात्हमारे यहां ज्ञान के विषय आलम्बन और प्राप्य माने घटको ही घट जाननेवाले ज्ञानका विषयभूत आलम्बन और प्राप्त करने योग्य एक ही ज्ञानका आलम्बन चांदी है और प्राप्ति करने योग्य विषय करे, वह ज्ञान प्रमाण होता है। ऐसी प्रमाणता दोनोंमें है । तिस कारण प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही मुख्य प्रमाण हैं । जैनोंके " तत्प्रमाणे " सूत्रका अर्थ प्रत्यक्ष और परोक्ष नहीं कर प्रत्यक्ष और अनुमान करना हमें अभीष्ट है । इस प्रकार " योऽप्याह " से लेकर " अनुमानं च तक कोई (बौद्ध) कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धोके यहां भी जितने भी कोई धूम हैं, वे सभी अग्निसे जन्म लेनेवाले हैं । अनि भिन्न पदार्थोंसे वे उत्पन्न होनेवाले नहीं हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण देश और कालको व्यापकर होनेवाली साध्य और साधन की व्याप्तिको तीसरे तर्क प्रमाणके विना भला किससे जान सकोगे ? इस प्रश्नके उत्तरको कितने ही दिन तक विचार कर कहो । अधिक देरतक चिन्ता करनेसे व्याप्तिज्ञानका मानना उपस्थित हो जावेगा। " व्याप्तिज्ञानं 39 1 18 T । किंतु सीपमें हुये चांदीके " चिन्ता । ऐसी दशा में बौद्धों को तीसरा प्रमाण मानना सिरपर आ पडा । प्रत्यक्षानुपलभाभ्यां न तावत्तत्प्रसाधनम् । तयोः सन्निहितार्थत्वात् त्रिकालागोचरत्वतः ॥ १५४ ॥
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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