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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संप्रत्ययो यथा यत्र तथा तत्रास्त्वितीरणे । बाधकामावविज्ञानपरित्यागः समागतः ॥८६॥ --
यदि मीमांसक यों कहें कि जिस प्रकार जहां भले प्रकार निर्णय हो जाय तिस प्रकार तहां तैसी व्यवस्था कर लो । रात्रिमें घटका प्रकाश हम तुमको दीपक द्वारा साध्य है । दीपक स्वयं प्रकाशमान है । इस प्रकार कहनेपर तो बाधकामावके विज्ञानका परित्याग करना अच्छे ढंगसे प्राप्त हो जाता है । यानी स्व और अर्थका निर्णय हो जाना बाधकाभावका आग्रह छोडनेपर बन जाता है। जहां स्वार्थका निश्चय है, वहां कोई भी बाधक फटकने नहीं पाता है । प्रमाणज्ञान होनेपर सभी बाधकज्ञान स्वतः भग जाते हैं। व्यभिचार दोषोंकी निवृत्ति करनेवाला विशेषण ही सार्थक माना गया है।
यचार्थवेदने बाधाभावज्ञानं तदेव नः।
स्यादर्थसाधनं बाधसद्भावज्ञानमन्यथा ॥ ८७॥ ___जो ही अर्थको जाननेमें मीमांसकोंने बाधकोंके अभावका ज्ञान माना है, वही हम स्याद्वादियोंके यहां अर्थको साधनेवाला ज्ञान माना गया है। और दूसरे प्रकारका यानी स्वार्थको नहीं साधनेवाला ज्ञान तो बाधकोंके सद्भावका ज्ञान है।
तत्र देशांतरादीनि वापेक्ष्य यदि जायते । तदा सुनिश्चितं बाधाभावज्ञानं न चान्यथा ॥ ८८ ॥
तिस प्रकरणमें देशान्तर, कालान्तर आदिकी अपेक्षा करके यदि वह ज्ञान उत्पन्न होता है, तब तो बाधकोंके अभावका ज्ञान अच्छा निश्चित हो सकता है । अन्यथा निश्चित नहीं है। भावार्थ-सभी देश और सभी कालोंमें बाधकोंके नहीं उत्पन्न होनेका यदि निर्णय होय तब तो बाधकामाव ज्ञान प्रमाणताका हेतु हो सकता है । केवल कभी, कहीं, और किसी एक व्यक्तिको बाधकोंका अभाव तो मिथ्याज्ञानोंके होनेपर भी है । इतनेसे क्या वे प्रमाण हो जायंगे ? सब स्थानोंपर सब कालोंमें सम्पूर्ण पुरुषोंको बाधक उत्पन्न नहीं होवेंगे इसका निर्णय भला असर्वज्ञ कैसकर सकता है ! अतः बाधवर्जितपना विशेषण लगाना प्रमाणोंमें अनुचित है । लक्षण ऐसा कहो जो कि सर्व दोषों का निराकरण करता हुआ बहुत छोटा हो । काव्यमें दिये गये और न्यायमें कहे गये विशेषणमें अन्तर है।
अदुष्टकारणारब्धमित्येतच्च विशेषणम् । प्रमाणस्य न साफल्यं प्रयात्यव्यभिचारतः ॥ ८९ ॥