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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
है । तिस कारण वह गृहीत विषयको ग्रहण करनेवाली नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहो सो तो ठीक नहीं है । क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञा तुमने इन्द्रियोंसे जन्य मानी है । अन्यथा यानी प्रत्यभिज्ञानको इन्द्रियोंसे जन्य नहीं माना जायगा तो प्रत्यक्षमें उसका अन्तर्भाव कैसे किया जा सकेगा ? इन्द्रियां तो व्यतीत हो चुकी पहिली अवस्था और वर्तमान हो रही उत्तर अवस्थामें वर्त्त रहे उस एकत्वमें प्रवृत्ति करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । क्योंकि इंद्रियोंका स्वभाव वर्तमान कालके अर्थको ग्रहण करनेका है । तुम्हारे ग्रन्थोंमें ऐसा कथन है कि सम्बद्ध हुये और वर्तमान कालके अर्थोका चक्षु आदि इन्द्रियोंकरके ग्रहण किया जाता है। ऐसी दशामें एकत्वको जाननेवाली प्रत्यभिज्ञा भला इन्द्रियोंसे कैसे उपज सकेगी ? तुम्ही जानो ।
पूर्वोत्तरविवर्ताक्षज्ञानाभ्यां सोपजन्यते । तन्मात्रमिति चेत्केयं तद्भिन्नैकत्ववेदिनी ॥ ७६ ॥
पूर्वके विवर्तको जाननेवाला इन्द्रियजन्यज्ञान और उत्तर अवस्थाको जाननेवाला इन्द्रिय ‘जन्यज्ञान इन दो ज्ञानोंसे वह प्रयभिज्ञा उत्पन्न होती है, और केवल उस एकत्वको विषय करती है, इस प्रकार कहनेपर तो हम अनुपपत्ति दिखलाते हैं कि ऐसी दशामें यह प्रत्यभिज्ञा उन दोनों विवर्तीसे भिन्न एकत्वको जाननेवाली कहां हुई ? दो विवौसे एकत्वको अभिन्न माननेपर तो प्रत्यभिज्ञा गृहीतग्राहिणी हो जायगी।
___ न हि पूर्वोत्तरावस्थाभ्यां भिन्ने च सर्वथैकत्वे तत्परिच्छेदिभ्यामक्षज्ञानाभ्यां जन्यमानं प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तते स्मरणवत् संतानांतरैकत्ववद्वा । .. पूर्व अवस्था और उत्तर अवस्थासे सर्वथा अभिन्न एकत्वमें उन दोनों अवस्थाओंको जानने वाले दो इन्द्रिय ज्ञानसे उत्पन्न हुआ प्रत्यभिज्ञान नहीं प्रवर्तता है, जैसे कि स्मरणज्ञान विचारा अनुभूतसे सर्वथा भिन्न अर्थमें नहीं प्रवर्तता है, अथवा अन्य जिनदत्त आदि सन्तानोंका एकपना जो कि देवदत्त की बाल्यअवस्था कुमार अवस्थाओंमें रहनेवाले एकत्वसे सर्वथा मिन्न है। उसमें देवदत्तके एकपनको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान जैसे नहीं प्रवर्तता है।
विवर्ताभ्यामभेदश्चेदेकत्वस्य कथंचन । तग्राहिण्याः कथं न स्यात्पूर्वार्थत्वं स्मृतेरिव ॥ ७७ ।।
पूर्व और उत्तर दोनों विवौसे एकत्वका कथंचित् अभेद माना जायगा तो उस एकत्वको ग्रहण करनेवाली प्रत्यभिज्ञाको स्मृतिके समान पूर्वगृहीत अर्थका ग्राहीपना क्यों नहीं होगा ? अर्थात् स्मृति जैसे पूर्व अर्थको गृहण करती है, वैसे ही पूर्व, उत्तरकी पर्यायोंसे अभिन्न एकत्वको जानने वाला प्रत्यभिज्ञान भी पूर्व अर्थका ग्राही है । सर्वथा अपूर्व अर्थका नहीं है।