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________________ तत्त्वार्थ लोकवार्तिके और अन्य कितने ही भव्यजीव असंख्यात कालसे ( के पीछे ) सिद्ध होवेंगे तथा अन्य कतिपय जीव अनन्त वर्षोंके पछि सिद्धिलाभ करेंगे । कुछ अभव्य और दूर भव्य जीव ऐसे भी हैं जो अनन्तानन्त कालमें भी सिद्ध अवस्थाको न प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार आगमके वाक्योंसे मोक्षकी अपने नियत कालमें अपने आप उत्पत्ति होना सिद्ध है । फिर आप जैनोंने मोक्षरूप दृष्टान्तको साधनसे रहित कैसे कहा था ? बतलाइये । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह शंका तो ठीक नहीं है । क्योंकि आप आगमका जैसा अर्थ कर रहे हैं उस आगमकी इस प्रकार अर्थ करनेमें तत्परता नहीं है । यानी आप जैसा अर्थ करते हैं वह आगमका अर्थ नहीं है । उसका ठीक अर्थ यह है कि मोक्षके नियतकारण माने गये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र इन तीनका आत्माके साथ तदात्मक एक रस हो जानेपर कोई संख्यात आदि कालोंसे सिद्धिलाभ करेंगे। हां कोई अनन्तकालमें भी सिद्ध न बन सकेंगे। इस प्रकारके अर्थसहितपने करके उस आगमका निश्चय हो रहा है । कारणों के एकत्रित हो जानेपर ही कार्य हो सकेगा । दूसरी बात यह है कि यह सम्यग्दर्शन तो दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम क्षयोपशम और क्षयरूप आदि हेतुओंसे जन्य है । अतः जब ये हेतु मिलेंगे तभी उत्पन्न होगा, चाहे जिस अपने कालमें ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होजाता है जिससे कि वह स्वाभाविक यानी विना कारणोंके ही निसर्गसे होनेवाला हो सके । अर्थात् यहां सम्यग्दर्शन में साधनके न रहने से स्वाभाविकपना साध्य भी नहीं रहता है। इस कारण तीनों ही सम्यग्दर्शनोंके निसर्ग और अधिगम ये दो कारण मानना समुचित हैं । ७८ अन्तर्दर्शनमोहस्य भव्यस्यापशमे सति । तत्क्षयोपशमे वापि क्षये वा दर्शनोद्भवः ॥ ५ ॥ बहिः कारणसाकल्येप्यस्योत्पत्तेरपक्षणात् । कदाचिदन्यथा तस्यानुपपत्तेरिति स्फुटम् ॥ ६ ॥ दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम या क्षयोपशम अथवा उसके क्षयरूप भी अन्तरङ्ग कारणोंके होनेपर किसी भव्य जीवके सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना देखा जाता है, तथा जिनमहिमाका दर्शन, जातिस्मरण, वेदनासे दुःखित होना, अधिगम, ( धर्मश्रवण ) अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तकरण आदि बहिरंग कारणोंकी भी सम्पूर्णता मिलनेपर ही इस सम्यग्दर्शनकी कभी कभी उत्पत्ति होना भी देखा जाता है । अन्यथा यानी बहिरंग और अन्तरङ्ग कारणोंकी पूर्णता न होनेपर उस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना असिद्ध है । यह बात सबके सन्मुख रपष्ट रूपसे सिद्ध हो जाती है । ततो न स्वाभाविकोस्ति विपरीतग्रहक्षयः स्याद्वादिनामिवान्येषामपि तथान - भ्युपगमात् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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