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तत्वार्थचिन्तामणिः
सर्व सद्दर्शनमधिगममेव ज्ञानमात्राधिगते प्रवर्तमानत्वादिति चेन्न, परोपदेशापेक्षस्य तत्त्वार्थज्ञानस्याधिगमशद्धेनाभिधानात् । नन्वेवमितरेतराश्रयः सति सम्यग्दर्शने परोपदेश पूर्वकं तत्त्वार्थज्ञानं तस्मिन् सति सम्यग्दर्शनमिति चेन्न, उपदेष्टृज्ञानापेक्षया तथाभिधानादित्येके समादधते । तेपि न युक्तवादिनः परोपदेशापेक्षत्वाभावादुपदेष्टृज्ञानस्य, स्वयंबुद्धस्योपदेष्टत्वात्, प्रतिपाद्यस्यैव परोपदेशापेक्षतत्त्वार्थज्ञानस्य सम्भवात् ।
कोई कहता है कि सम्पूर्ण सम्यग्दर्शन अधिगमसे जन्य ही हैं, निसर्गसे जन्य नहीं, क्योंकिसामान्य ज्ञानसे जाने गये पदार्थमें सम्यग्दर्शन होनेकी प्रवृत्ति हो रही है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में अधिगम शद करके परोपदेशकी अपेक्षा रखता हुआ तत्त्वार्थोका ज्ञान कहा जाता है। परोपदेशके विना अतिरिक्त कारणोंको निसर्ग माना है । यहां कोई शङ्का करे कि इस प्रकार माननेपर तो कारक पक्षका अन्योन्याश्रय दोष हो जावेगा। क्योंकि सम्यग्दर्शनके हो चुकनेपर तो परोपदेशको कारण मानकर तत्त्वार्थीका समीचीन ज्ञान होवे और तत्त्वार्थीका ज्ञान हो चुकने पर उससे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होवे, अर्थात् सम्यग्दर्शनका कारणभूत तत्त्वज्ञान समीचीन होगा तभी सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करा सकेगा और ज्ञानमें समीचीनता सम्यग्दर्शनसे प्राप्त होती है । कोई कहते हैं कि इस प्रकार परस्पराश्रय दोष देना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उपदेष्टा वक्ता ज्ञानकी अपेक्षासे तैसा कह दिया गया है। भावार्थ — उपदेष्टाका ज्ञान ही परोपदेश से उत्पन्न हुआ है और उपदेष्टाके ज्ञानसे शिष्यके अधिगमजन्य सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है । अतः अन्योन्याश्रय दोषका वारण होगया, ऐसा कोई एक विद्वान् समाधान करते हैं । आचार्य कहते हैं कि वे विद्वान् भी युक्तिपूर्वक कहनेवाले नहीं हैं। क्योंकि उपदेष्टाका ज्ञान परोपदेशकी अपेक्षा रखनेवाला नहीं है । पदार्थोंका स्वयं अनुमनन किये हुए विद्वान् स्वयंबुद्धको उपदेशकपनकी व्यवस्था है । जो विद्वान् दूसरे गुरुसे पढकर उपदेशक हुआ है वह भी कुछ समयतक पदार्थोंका अभ्यास कर चुकनेपर ही पुनः उपदेशक बन सकता है । द्रव्यलिंगी मुनिके उपदेशसे भी अनेक भव्य जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेते हैं। उन द्रव्यलिंगी मुनियोंके भी जीवादिक तत्त्वोंका अच्छा अभ्यास है । सम्यग्दर्शन न होनेसे शुद्धात्माका अनुभव नहीं है । इस विषयको प्रतिपाद्य शिष्य नहीं जान सकता है। वे स्वयं भी नहीं जानते हैं । उपदेश देने सुननेमें इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है । निमित्त नैमित्तिकभाव अचिन्त्य है । एक कामी राजाने अपने प्रिय होरहे जारके निकट शीघ्रतासे जाती हुयी कामिनीको बुलाया, स्त्रीने राजासे कहा कि " समय है थोडा, और मुझे जाना है दूर इन शोंको स्त्रीने साधारण अभिप्रायसे कहा था । किन्तु इस वाक्यको सुनकर और परमार्थको विचार कर राजा कुकर्मों से उदासीन होगया, वह विचारता है कि मैंने पापक्रियामें अपने आयुष्यका बहुभाग निकाल दिया है।
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अब समय थोडा अवशिष्ट है और मुझे आत्मीय स्वाभाविक गुणोंकी प्राप्तिके लिए दूर तक चलना है । बादलोंको विलीन देखनेसे कई राजाओंको वैराग्य उत्पन्न होगया है । पहिले उन्होंने अनेक वार
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