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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
कार्य कारणोंके बिना नहीं होता है । सिंहका शरीर, हड्डी, बडा मस्तक, शक्तिशाली डाढ, दांत, पजे, जन्मपरंपरासे चले आ रहे आधिपत्यके विचार, नामकर्मकी विशेषतायें आदि अपने विशेष कारणोंसे उत्पन्न हो भी रही उस सिंहकी शूरवीरता परोपदेशकी नहीं अपेक्षा रखनेके कारण लोकमें स्वभावसे होती हुयी प्रसिद्ध हो रही है । तिसीके समान देवविभूति, जिनमहिमा आदिका चाक्षुष प्रत्यक्ष तथा पूर्वके भव, धर्मपालन आदिका स्मरण और सुख या दुःखोंका तीव्र अनुभवरूप मानसप्रत्यक्ष एवं स्वार्थानुमान आदि मतिज्ञान या विभङ्गज्ञान इन ज्ञानोंसे जाने गये तत्त्वार्थोंमें परोपदेशके विना ही उत्पन्न हो रहे सम्यग्दर्शनको निसर्गसे उत्पन्न हुआ कहना विरुद्ध नहीं है । अर्थात् कोई विद्यार्थी श्रीप्रमेयकमलमार्तण्ड, श्री अष्टसहस्री आदि पाठ्यग्रंथोंको गुरुमुखसे अध्ययन करके आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सप्तभङ्गीतरङ्गिणी आदि ग्रंथोंको अपने आप ( निसर्ग ) लगा लेता है । काव्य, साहित्यके चार पांच उच्च ग्रंथोंको पढकर पहिले देखे सुने नहीं ऐसे कतिपय काव्य और पुराणोंको अपने आप लगा लेता है । यहां अपने आपका अर्थ दूसरेके उपदेश ( अध्यापन ) की नहीं सहायता लेना है । निमित्तके बिना ही हो जाना निसर्गका अर्थ नहीं है। किंतु वह छात्र क्षयोपशम, व्युत्पत्ति, मनोयोग लगाना, व्याकरण, कोश, आदिका बल इन कारणोंसे ही अश्रुतपूर्व ग्रंथोंका अध्ययन करता है । कोई कोई व्युत्पन्न जीव तो अध्ययन किये बिना भी पहिले जन्मके संस्कारोंसे ही उत्कृष्ट बुद्धिमताके कार्योको कर देते हैं, ये कार्य भी निसर्गसे किये हुए समझे जाते हैं। हां ! जिन कार्योंमें परोपदेशकी आवश्यकता है, उन कार्योको दूसरे भेदमें गिना गया है। जगत्के असंख्य कारणोंमें परोपदेश ही एक ऐसा विशिष्ट कारण है जो कि असंख्य कारणोंकी बराबरीमें अकेला गिना जा सकता है । " गुरु विना ज्ञान नहीं" इसकी धारा आजतक चली आ रही है। कवि लोगोंने गुरुके विना मुख्य सिद्धांतोंको न जाननेका मयूरके नृत्यमें गुह्य अंगका दीख जाना दृष्टांत दिया है। वचनोंके द्वारा प्रतिपाद्यविषयोंकी अपेक्षासे देखा जाये तो यह ठीक है, किंतु शद्रोंके द्वारा अवाच्य ( न कहा जावे ) ऐसा अनन्तानन्त प्रमेय तो उपदेशके बिना ही अन्य कारणोंसे जान लिया जाता है । तथा अनन्तानन्त कार्योमेंसे अनंतवें भाग कार्य ही उपदेशसे किये जाते हैं, बहुभाग कार्य निसर्गसे ही हो जाते हैं । बाल्य, युवा अवस्थाओंमें उपदेशके बिना ही स्वोचित अनेक क्रियाएं स्वतः ज्ञात हो जाती हैं । अतः परोपदेशके बिना स्वभावसे ही उत्पन्न हुयी सिंहकी शूरवीरता, वृक ( भेडिया ) की क्रूरता, मृगया बकरीकी भयभीतता, दुर्जनकी नीचता, आदि हुयी देखी जा रही हैं। हां, भगे हुए कतिपय सैनिकोंके प्रति सेनापति करके ओजस्वी वचनों द्वारा शूरताका उत्साह दिलाया जाता है, वह उपदेशजन्य है । अतः परोपदेशके विना ही तत्त्वार्थीको मति आदि ज्ञानों द्वारा जान चुकनेपर स्वतः होरहा सम्यग्दर्शन निसर्गसे हुआ कहा गया, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
नववं मत्यादिज्ञानस्य दर्शनेन सहोत्पत्तिविहन्यते तस्य ततः प्रागपि भावादिति चेन्न,सभ्य ग्दर्शनोत्पादनयोग्यस्य मत्यज्ञानादेर्मतिज्ञानादिव्यपदेशादर्शनसमकालं मत्यादिज्ञानोत्पत्तेः ।