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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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सूत्रमें तत् ऐसा नपुंसक लिंगके एक वचनका निर्देश होरहा है, इस कारणसे भी पुल्लिङ्ग शुद्व मानेगये मोक्षमार्गका परामर्श होना नहीं बनता है और एक वचन होनेके कारण मोक्षमार्ग रूप फैले हुए बहुतसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रोंका भी परामर्श नहीं होने पाता है । इस प्रकार शद्व सम्बन्धी न्यायसे व्याकरण शास्त्र के अनुसार भी तत् शद्ब करके सम्यग्दर्शनका ही परामर्श किया गया जाना जाता है, जैसे कि सूत्रके अर्थपर विचार करनेसे दोनों कारणोंसे जन्यपना प्रत्येक सम्यग्दर्शनमें घट जाता है, इस अर्थ सम्बन्धी न्यायसे तत् शद्ब करके सम्यक्त्वका ही परामर्श होता है । भावार्थ-शद्वपर विशेष लक्ष्य देनेवाले शद्व शास्त्र और अर्थाशपर लक्ष्य देकर शाद्वबोधकी प्रणालीको बतानेवाले अर्थशास्त्रकी नीतिसे तत् शद्वके द्वारा सम्यग्दर्शनका ही परामर्श हुआ विचारा जाता है । नैयायिक जैसे ज्ञानलक्षणा प्रत्यासत्तिसे दूरस्थ चन्दनमें सुगन्धका प्रत्यक्ष ज्ञान करलेते हैं, वैसे ही इतस्ततः ऊपरके प्रकरणोंसे ऋषि आम्नायके अनुसार सूत्रोंका अर्थ निर्णीत किया गया है ।
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कः पुनरयं निसर्गोऽधिगमो वा यस्माचदुत्पद्यत ? इत्याह :
यहां किसीका प्रश्न है कि फिर आप बतलाइये ! यह निसर्ग अथवा अधिगम क्या पदार्थ हैं ? जिनसे कि वह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है । ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य उत्तर कहते हैं ।
विना परोपदेशेन तत्त्वार्थप्रतिभासनम् । निसर्गोधिगमस्तेन कृतं तदिति निश्चयः ॥ ३ ॥ ततो नाप्रतिभातेऽर्थे श्रद्धानमनुषज्यते ।
नापि सर्वस्य तस्येह प्रत्ययोधिगमो भवेत् ॥ ४ ॥
दूसरोंके लिखित या मौखिक उपदेशके विना अन्य जिनबिम्बदर्शन, वेदना आदि कारणोंसे जो तत्त्वार्थीका प्रतिभास होना है वह निसर्ग है । और दूसरोंके उस उपदेशसे किया गया तत्त्वार्थीका वह प्रतिभास करनारूप निश्चय है यह अधिगम है । इस परोपदेशके विना और परोपदेश से होनेवाला निश्चय तो सम्यग्दर्शनका कारण है । इस कारण नहीं प्रतिभास किये गये अर्थमें श्रद्धान होनेका प्रसंग नहीं होता है और सर्व ही जीवोंके सम्यग्दर्शन हो जानेका प्रसंग भी नहीं होता है । क्योंकि जिन जीवोंको तत्त्वार्थोका प्रतिभास नहीं है उनका अन्य विषयोंमें हुआ मिथ्याज्ञान यहां (इस प्रकरण में) अधिगम नहीं माना गया है। मोक्षमार्गके उपयोगी समीचीन निश्चयरूप ज्ञानको अधिगम कहते हैं ।
न हि निसर्गः स्वभावो येन ततः सम्यग्दर्शनमुत्पद्यमानमनुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनवन्नोपपद्येत । ततः परोपदेशनिरपेक्षे ज्ञाने निसर्गशद्वस्य प्रवर्तनान्निसर्गतः शूरः