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लंडनसे आक्सफार्ड विश्वविद्यालयके रिसर्च स्कालर श्री. पदमराजय्या एम्. ए. उक्त पत्रमें लिखते हैं किः
___ "मेरे लिखनेका मुख्य प्रयोजन जैन न्यायके महान् ग्रंथ-तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारसे है, जो कि आपके द्वारा बडी योग्यतासे संपादित होकर श्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालासे प्रकाशित हुआ है। उसका पहिला खंड (नं. ४१) मुझे किसीने हिंदुस्तानमें दिया है। मैंने अत्यंत (आसक्तिसे) सूक्ष्मताके साथ उसके विषयोंका अध्ययन किया एवं अनुभव किया कि दूसरे खंडके लिए आपको शीघ्र पत्र लिखना चाहिये जो कि अबतक प्रकाशित हुआ होगा, जैसा कि आपने पहिले खंडमें आपके संपादकीय वक्तव्यमें (पे. नं. २ ) वचन दिया है। दुर्भाग्यसे मेरा यहां रहनेका समय समाप्त होता आरहा है। मुझे आगामी आगस्ट या सितंबरतक हिंदुस्तान लौटना चाहिये । यदि दूसरा खंड तैयार हो तो कृपया उसे सेकेंडरी हवाई डाकसे मुझे मेरे लंडनके पतेसे भेजनेकी व्यवस्था करें। कृपया उसे यथाशक्य जल्दीसे जल्दी भेनें । यदि बाईडिंग न हुआ तो भी चिंता नहीं । आपकी कृपाके लिए मैं कृतज्ञ रहूंगा ! आप विदित कर सकेंगे कि दूसरे खंडसे मेरा खास संबंध है । क्योंकि मैं इस ग्रंथके ' प्रमाणनयैरधिगमः ' इस सूत्रकी व्याख्याको ( विवरण ) देखना चाहता हूं, जिससे मेरे विषयका अत्यंत निकट संबंध है।
दूसरी बात यदि किसी तरह तीसरे और आगेके खंड भी प्रकाशित हुए हों तो उनको भी साथमें भेजनेकी कृपा करें । इस ग्रंथके प्रत्येक खंडसे मुझे अत्यधिक (प्राणपूर्ण) अभिरुचि है " । इत्यादि।
. इस प्रकार इस महान् ग्रंथके दर्शनकी तीव्र अपेक्षा व्यक्त करनेवाले पत्र हमारे पास अनेक आये हैं। परंतु हमें यह कहनेमें संकोच बिलकुल नहीं होता है कि हम हमारे स्वाध्यायप्रेमियोंकी इच्छापूर्ति सकालमें नहीं कर सकें । कारण कि हमारी बलवती इच्छा यह है कि जिस प्रकार यह ग्रंथ महत्वशाली है उसी प्रकार उसका संपादन और संशोधन भी बहुत ही सुंदरतासे हो । उसमें कुछ विलंब लगना स्वाभाविक है। फिर भी आगामी खंडोंके प्रकाशनमें कुछ द्रुतगतिका ध्यान रक्खा जायगा, इतना ही हम पाठकोंको आश्वासन दे सकते हैं।
प्रथम खंडका संपादन और प्रकाशन कैसा हुआ है, इस संबंधका निर्णय हम विद्वत्संसारके ऊपर ही छोड चुके हैं । क्योंकि । विद्वानेव विजानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् ' । इस संबंध जैन समाजके माने हुए तार्किकविद्वान् परमपूज्यसंत न्यायाचार्य पं. गणेशप्रसादजी वर्णी और भारतवर्षीय दि. जैन महासभाके मुखपत्र जनगजटके सुयोग्य संपादक और प्रखर वक्ता श्री. विद्यालंकार पं. इंद्रलालजी शास्त्री जयपुर क्या कहते हैं, यह जाननेके बाद इस विषयकी लोकप्रियता अविलंब समझमें आ जायगी। उनके वक्तव्यको हम यहां दे रहे हैं।