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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विशुद्धि, सामायिक आदि विशेषोंको भी निसर्गसे उत्पन्न होनापन नहीं है, स्वयं या दूसरोंके द्वारा शास्त्रोंका अभ्यास कर चुकनेपर चारित्र पाला जाता है । अतः चारित्रका निसर्ग और आधिगम इन दोनों प्रकारके हेतुओंसे उत्पन्न होजानापन नहीं सम्भवता है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों स्वरूप मार्ग भी तत् शब्दके द्वारा सम्बन्धित नहीं होपाता है। क्योंकि तीनमेंसे ज्ञान और चारित्रको तो व्यक्तिरूप करके निसर्ग और अधिगम दोनोंसे जन्यपना नहीं घटता है, ऐसी दशामें तीनोंके समुदायरूप मोक्षमार्गमें दोनोंसे जन्यपना नहीं बन सकता है । इस प्रकरणमें केवल सम्यग्दर्शनकी ही चाहे जिस व्यक्तिमें निसर्ग अथवा अधिगमसे उत्पत्ति होनेका सम्बन्ध अच्छा घटित होता है । अतः तत् शद्वसे सम्यग्दर्शनका ही परामर्श ( पूर्वका स्मरण ) करना चाहिये ।
नन्वेवं तच्छरोऽनर्थकः सामर्थ्यादर्शनेनात्राभिसम्बन्धसिद्धेरिति चेत् न, शादन्यायान्मार्गेणाभिसम्बन्धप्रसक्तेः। ___यहां कटाक्ष पूर्वक शंका है कि इस प्रकार तो तत् शद्बका प्रयोग करना सूत्रमें व्यर्थ ही रहा, क्योंकि निसर्ग और अधिगम इन दोनोंको हेतु बनानेकी सामर्थ्यसे ही दर्शनके साथ यहां सम्बन्ध होजाना तत्शदके बिना भी अपने आप भी सिद्ध होजाता है। गुरुजी समझाते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि शद्वसम्बन्धी व्याकरणशास्त्रके अनुसार शद्बकी नीतिका विचार करनेपर मोक्षमार्गके साथ सुन्दर सम्बन्ध होनेका प्रसंग प्राप्त है । अतः सम्यग्दर्शनको आकर्षण करनेवाले तत् शब्दके विना मोक्षमार्गका सम्बन्ध हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है ।
प्रत्यासत्तेस्ततोपि दर्शनस्यैवाभिसंबन्ध इति चेन्न, मार्गस्य प्रधानत्वात् दर्शनस्यास्य तदवयवत्वेन गुणभूतत्वात् , प्रत्यासत्तेः प्रधानस्य बलीयस्त्वात् , सन्निकृष्टविप्रकृ. टयोः सनिकृष्टे सम्प्रत्ययः इत्येतस्य गोणमुख्ययोमुख्ये सम्प्रत्यय इत्यनेनापोहितत्वात् सार्थक एव तच्छरो मार्गाभिसम्बन्धपरिहारार्थत्वात् ।
___ यहां पुनः आक्षेप है कि निसर्ग और अधिगमसे सम्यग्दर्शनके साथ सम्बन्ध किया जावे या मोक्षमार्गके साथ सम्बन्ध किया जावे ? ऐसा विवाद होनेपर अत्यन्त निकट होनेसे इस कारण भ, सम्यग्दर्शनका ही पञ्चम्यन्त पदोंकी ओर सम्बन्ध होगा, व्यवधान होनेके कारण मोक्षमार्गका ग्रहण न होसकेगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहोगे, सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि यहां मोक्षमार्गकी ही प्रधानता है । उस त्रयात्मक मोक्षमार्गका एक अंश होनेके कारण इस सम्यग्दर्शनको गौणपना है। विधेय दलमें पड़ा हुआ और स्वतन्त्रताको कहनेवाली प्रथमा विभक्तिको धारण करता हुआ विशेष्य दल प्रधान होता है और उद्देश्य दलमें पडे हुए विशेषण अप्रधान होते हैं। अत्यन्त निकटके गौण पदार्थसे दूरवर्ती भी प्रधान पदार्थ अतीव बलवान् होता है । किसी राजाका वर्णन करते हुए मन्त्री, सेना, नगर, उद्यान, प्रजाजनका वर्णन कर चुकनपर भी पीछेसे वीर धर्मात्मा दयालु आदिक शद्ध प्रधान राजाके साथ ही अन्वित होवेंगे। साधारण मनुष्यके लिये नहीं। " प्रत्यासत्तेः प्रधानं बलीयः"