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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
सत्तासे सम्बद्ध होजानेके कारण नित्य होजाते हैं, इस व्याप्तिमें व्यभिचार देखा जाता है । कार्यकी उत्पत्ति से पूर्वसमयतक अनादि कालसे चले आये हुए प्रागभावको अहेतुकपना होते हुए भी निव्यपना और सत्पना नहीं देखा जाता है, कार्यके उत्पन्न होजानेपर प्रागभाव नष्ट होजाता है । अतः प्रागभाव त्रिकालवर्ती नित्य नहीं है और चार अभावोंमेंसे प्रागभाव एक अभाव पदार्थ है । अतः द्रव्य, गुण और कर्मके समान सत्ता जातिवाला नहीं है । तथा सामान्य, विशेष, और समवाय के समान स्वरूपसत्ता ( अस्तित्व ) वाला भी नहीं है, अतः असत् है । जब अहेतुक ( नहीं है हेतु जिसका ) माने गये प्रागभावको नित्यपना और सत्यपना नहीं देखा जाता है, तिसी कारण अहेतुक सम्यग्दर्शनको भी वह नित्य ही सत्ता बने रहनेका प्रसंग न होगा, जिससे कि आप जैन उस नित्यपनेकी. निवृत्ति के लिये उस सम्यग्दर्शनका सहेतुकपना कहते हैं । भावार्थ - प्रागभावके समान अहेतुक सम्यग्दर्शन भी नित्य न होगा, व्यर्थका भय करनेसे क्या लाभ है ? । अब आचार्य कहते हैं कि शंकाकारको समीचीन व्याप्तिका प्रागभावमें उक्त व्यभिचार देना तो उचित नहीं है। क्योंकि प्रागभाबको अहेतुकपना सिद्ध नहीं है । अतः हमारी " जो जो अहेतुक होता है वह वह नित्य होता है जैसे कि आत्मा, आकाश आदि द्रव्य हैं, इस व्याप्तिमें व्यभिचार नहीं है । इस कारण सम्यग्दर्शन अहेतुक न माना गया, अतः नित्यपनेका प्रसंग नहीं आया । हम प्रागभावको सहेतुक मानते हुए ही नित्य नहीं मान सके हैं ।
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स हि घटोत्पत्तेः प्राक् तद्विविक्तपर्यायपरम्परारूपो वा द्रव्यमात्ररूपो वा ? प्रथमपक्षे पूर्वपूर्वपर्यायादुत्पत्तेः कथमसौ कार्योत्पत्तिपूर्वकालभावी पर्यायकलापोऽहेतुको नाम यतः कार्यजन्मनि तस्यासवं पूर्व सतोपि विरुध्यते तदा वाऽसत्वेपि पूर्व सत्त्वं न घटते । द्वितीयपक्षे तु यथा प्रागभावस्याहेतुकत्वं तथा नित्यं सत्त्वमपि द्रव्यमात्रस्य कदाचिदसत्त्वायोगात् । प्रागभावको अहेतुक और अनादि माननेवाले वैशेषिकोंके प्रति हम प्रश्न उठाते हैं कि घटकी उत्पत्तिसे पहिले रहनेवाला वह प्रागभाव किस स्वरूप है ? बताओ । क्या उस घट पर्यायसे रहित मानी गयीं पहिलेकी कुशूल, कोष, स्थास, छत्र, शिवक आदि अनेक पूर्वकालवर्ती पर्यायोंकी परम्परा रूप है या वह प्रागभाव केवल द्रव्यरूप है ? कहिए । पहिला पक्ष स्वीकार करनेपर तो वह प्रागभाव कैसे अहेतुक हो सकेगा ? क्योंकि घटरूप कार्यकी उत्पत्तिके पहिले कालमें उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंका समुदायरूप प्रागभाव उनसे पहिले पहिलेकी पर्यायोंसे उत्पन्न होरहा है अर्थात् मिट्टीकी चूर्णपर्यायसे जलका निमित्त मिलनेपर शिवक पर्याय हुयी, शिवकसे छत्र, छत्रसे स्थास, स्थाससे कोष, और कोषसे कुशूल यों पर्यायें उत्पन्न होती हैं। इनसे चिरकाल पूर्वकी पर्यायोंमें भी यही धारा चली आरही है, ऐसी दशामें पूर्व पर्यायोंकी परम्परारूप प्रागभावको आप वैशेषिक अहेतुकं भला कैसे मान सकते हैं ? जिससे कि कार्यका जन्म होजाने पर पहिले कालोंमें विद्यमान होते हुए भी उस प्रागभावकी कार्यकालमें असत्ता विरुद्ध पड जाती । अर्थात् वैशेषिकोंको यह भय लगा हुआ