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________________ तत्वार्थचिन्तामाणिः समय, आवलि, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, पल्य, सागर, आदि व्यवहार करना है प्रयोजन जिसका, ऐसा काल केवल क्रियारूप ही है । अर्थात्-परमाणुका एक प्रदेशसे दूसरे आकाश प्रदेशपर मन्दगतिसे गमनरूप-क्रिया तो समय है । गौओंकी दोहनारूपक्रिया गोदोहन वेला है । चन्द्रमाका पन्द्रह गलियोंमें घूमकर पुनः उसी गलीपर आजानारूप क्रिया चान्द्रमास है । सूर्यका एक सौ चौरासी गलियोंमें भ्रमण कर पुनः उसी वीथीपर गमन करनारूप क्रिया सौरवर्ष है । इत्यादि क्रियारूप व्यवहार काल कहीं भी नवीनसे जीर्ण करनास्वरूप वर्तनालक्षणवाले मुख्यकालके विना सिद्ध न हो सकेगा। न हि व्यावहारिकोपि कालः क्रियामात्रं समकालस्थितिरिति कालविशेषणाया: स्थितेरभावप्रसंगात् । परमः सूक्ष्मः कालो हि समयः सकलतादृशक्रियाविशेषणतामात्मसात् कुस्ततोऽन्य एव व्यवहारकालस्यावलिकादेर्मूलमुन्नीयते । स च मुख्यकालं वर्तनालक्षणमाक्षिपति तस्मादृते कचित्तदघटनात् । न हि किंचिद्गौणं मुख्याहते दृष्टं येनातस्तस्यासाधनं । ___ और व्यवहाररूप प्रयोजनको साधनेवाला काल भी केवल क्रियारूप ही नहीं है । क्योंकि इन पदार्थोकी समान कालमें स्थिति है, इस प्रकार काल है विशेषण जिसका ऐसी स्थितिके अभावका प्रसंग होगा । विशेषणसे विशेष्य भिन्न होना चाहिये । छोटा होते होते सबसे अन्तमें जाकर परम सूक्ष्मकाल समय है और वह तिस प्रकारकी सम्पूर्ण क्रियाओंके विशेषणपनको अपने अधीन करता हुआ उपस्थितिसे न्यारा ही होकर आवलि, मुहूर्त, आदि व्यवहारकालोंका मूलकारण उपरिष्ठात् समझ लिया जाता है और वह व्यवहारकाल प्रत्येक द्रव्यकी एक समयमें होनेवाली स्वसत्ता अनुभूतिरूप वर्तना है लक्षण जिसका, ऐसे मुख्यकालका आक्षेप (अनुमान) कर लेता है। क्योंकि उस मुख्य कालके विना कहीं भी वह व्यवहारकाल घटित नहीं होपाता है। कोई भी गौण पदार्थ मुख्यके विना होता हुआ नहीं देखा गया है । जिससे कि इस व्यवहारकालसे उस मुख्यकालका साधन नहीं किया जा सके। भावार्थ --..." अग्निर्माणवकः " " गौर्वाहीकः " " अन्नं वै प्राणाः " आदि स्थलोंमें मुख्यके होनेपर ही उसकी कल्पना अन्यत्र कर ली जाती है। इसीके समान समय, आवलि, आदिक व्यवहारकालसे वर्तनालक्षण मुख्य असंख्यातकाल द्रव्योंका अनुमान द्वारा साधन हो जाता है । कालाणुकी समयपर्याय वास्तविक है । पुनः उसके समुदायसे आवलि, श्वास, आदि व्यवहारकाल बन जाते हैं। परत्वमपरत्वं च समदिगातयोः सतोः ।.. . समानगुणयोः सिद्धं ताकालनिबंधनं ॥ ४६॥..... परापरादिकालस्य तत्त्वं हेत्वंतरान्न हि।... : :: यतोऽनवस्थितिस्तत्राप्यन्यहेतुप्रकल्पनात् ॥४७॥
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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