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________________ ६२९ तत्वार्थचिन्तामणिः वर्तमान कालमें अर्थको चुपटाये रखनारूप क्षेत्रसे तीनों कालों में संसर्ग रखनारूप स्पर्शन कथंचित् भिन्न ही समझना चाहिये । बौद्ध संपूर्ण पदार्थोंका वर्तमान एक क्षणमें ठहरना स्वीकार करते हैं । उनका कहना है कि सम्पूर्ण पदार्थ वर्तमान कालमें ही होनेवाले परिणामस्वरूप हैं । इस कारण तीनों कालमें कहीं ठहरनारूप स्पर्शन असत् ही है, सो यह तो बौद्धों को नहीं कहना चाहिये । क्योंकि उन संपूर्ण पदार्थोंको नित्य अन्वित रहनेवाले द्रव्यरूपसे अनादि अनन्तकालतक स्थिर रहना स्वरूप होनेके कारण तीनों कालोंमें ठहरना बन जाता है। सप्तमी विभक्तिका अर्थ विषय भी है। नन्दिमयुक्तं वर्तते वस्तु त्रिकालविषयरूपमनाद्यनंतं चेति । तद्धि यद्यतीतरूपं कथमनंतं ? विरोधात् । तथा यद्यनागतं कथमनादि १ ततो न त्रिकालवर्तीति । पुनः बौद्ध शंकापूर्वक अपने क्षणिक पक्षके अवधारण करनेका प्रयत्न करते हैं कि जैनोंका इस प्रकार यह कहना अयुक्त हो रहा है कि तीनों कालोंमें अधिकरणस्वरूप वस्तु अनादिसे अनन्तकालतक ठहरती हुई उन परिणामोंसे तदात्मक हो रही है । आप जैन विचारिये कि वह वस्तु नियमसे यदि अपने अतीत परिणामस्वरूप है तो भला वह अनन्त कैसे हो गयी ! क्योंकि विरोध है । पहिले हो चुका रावण भविष्य में होनेवाले शंख चक्रवर्त्तीस्वरूप नहीं हो सकता है । अतीत कालका भविष्यकालसे अभेद करना मानो अधोलोकको ऊर्ध्व लोकके स्थान में बैठा देना है। तथा यदि वस्तुको भविष्य परिणामोंके साथ तदात्मक स्वरूप माना जायगा तो वह अनादि कैसे हो सकती । मुक्तजीव पुनः संसारी बननेके लिये नहीं लौटते हैं । तिस कारण तीनों कालमें वर्त्तनेवाली वस्तु नहीं हो सकती है । यहांतक क्षणिकवादीका कहना है । अब आचार्य समाधान करते हैं । द्रव्यतोऽनादिपर्यंते सिद्धे वस्तुन्यबाधिते । स्पर्शनस्य प्रतिक्षेपस्त्रिकालस्य न युज्यते ॥ ४३ ॥ नित्य, अन्वयी, द्रव्यरूपकरके अनादिसे अनन्तकालतक ठहरनेवाली वस्तुके बाधारहित सिद्ध हो जानेपर त्रिकालवर्त्ती स्पर्शनका खण्डन करना कैसे भी युक्त नहीं है । न हि येनात्मनातीतमनागतं वा तेनानंतमनादि वा वस्तु ब्रूमहे, यतो विरोधः स्यात् । नापि स तदात्मा वस्तुनो भिन्न एव, येन तस्यातीतत्वेऽनागतत्वे च वस्तुनोऽनंतत्वमनादित्वं च कथंचिन्न सिध्येत् । ततोऽनाद्यनंतवस्तुनः कथंचित्त्रिकालविषयत्वं न प्रतिक्षेपाईमविरुद्धत्वादिति श्लेषांशस्तल्लक्षणः स्पर्शनोपदेशः । हम स्याद्वादी जिस परिणामस्वरूपसे वस्तु अतीत है, उसी परिणामस्वरूपसे अनागत ( भविष्य ) अथवा जिस स्वरूपसे वस्तु अनन्तकालतक ठहरेगी उसी स्वरूपसे अनादिकालसे ठहरी चली आई है, यह नहीं कहते हैं, जिससे कि विरोध हो जावे । और वह अतीत, अनागत, परिणामोंसे
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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