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तस्वार्थचिन्तामणिः
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आदि धर्म अपेक्षासे गढ लिये गये पदार्थ हैं, इस प्रकार बौद्धोंका अनुमान युक्तिरहित है। क्योंकि उस क्षेत्रको वस्तुभूतपना है ।प्रमाणका गोचर होनेसे जैसे कि अपने अपने अभीष्ट तत्त्व वास्तविक हैं । अतः इस प्रतिपक्षको साधनेवाले अनुमानके होनेसे पहिले अनुमानका हेतु सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। तथा अपेक्षासे मान लिया गया पदार्थ प्रमाणका विषय न होय सो नहीं समझना । देखिये ! सुख, ततः अधिक सुख, और सबसे अधिक सुख, तथा थोडे नीले रंग और अधिक नीले रंगसे युक्त हुये नील, नीलतर, नीलतम इसी प्रकार दूध, दाख, मिश्री, आदिके माधुर्यमें तरतमभाव आपेक्षिक हो रहा है। किन्तु ये सब प्रमाणके विषय होते हुये वास्तविक हैं । दूधमें वर्त्त रहे मीठेपनकी अपेक्षासे दाखके रसमें मधुरताके अविभाग प्रतिच्छेदोंके आधिक्य होनेपर वास्तविक परिणति अनुसार आपेक्षिकपना है । कोरा यों ही नहीं गढ लिया गया है । अतः आपेक्षिकपन हेतुका अवास्तविकपन साध्यके साथ ठीक व्याप्ति न बननेसे व्यभिचारदोष भी है । यदि यहां कोई यों कहे कि केवल शुद्ध संवेदनको कहनेवाले वैभाषिक बौद्धोंके यहां उन सुख, अधिक सुख अथवा नील, नीलतर, मिष्ट, मिष्टतर आदिको भी प्रमाणका विषयपना नहीं है । सौत्रान्तिकोंके यहां भले ही होय, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि ग्राह्यग्राहकभाव आदिसे रहित शुद्धसंवेदन अद्वैतका हम अभी निरास कर चुके हैं । कत्रमें गाढे जा चुके मुर्दोका उठाना उचित नहीं।।
ननु च क्षेत्रत्वं कस्य प्रमाणस्य विषयः स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षस्य तत्र तस्यानवभासनात् । न हि प्रत्यक्षभूभागमात्रप्रतिभासमाने कारणविशेषरूपे क्षेत्रत्वमाभासते कार्यदर्शनात्वनुमीयमानं कथं वास्तवमनुमानस्यावस्तुविषयत्वादिति कश्चित्, सोप्ययुक्तवादी । वस्तुविषयत्वादनुमितेरन्यथा प्रमाणतानुपपत्तेरिति वक्ष्यमाणत्वात् ।
____ और भी किसीकी शंका है कि आप जैनोंने कहा था कि वह क्षेत्र प्रमाणसे जाना हुआ विषय है, सो बताओ कि भूतल आदिकोंका क्षेत्रपना भला किस प्रमाणका विषय हो सकेगा ? सबसे पहिले प्रत्यक्ष प्रमाणका तो वह जानने योग्य विषय नहीं है। क्योंकि उस प्रत्यक्षमें उस क्षेत्रका प्रतिभास ही नहीं होता है। प्रत्यक्षज्ञान अविचारक है जैसे कि प्रभु और सेवक अथवा गुरु और शिष्य व्यक्तियोंके प्रत्यक्ष होनेपर भी यह गुरु है और यह शिष्य है एवं यह व्यक्ति स्वामी है और यह पुरुष इसका आज्ञाकारी नौकर है, इन बातोंको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है । स्याद्वादियोंने भी यह कार्य विचार करनेवाले श्रुतज्ञानके अधिकारमें रखा है । इसी प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञानसे केवल भूभागके प्रतिभास जाननेपर विशेष कारण स्वरूपमें क्षेत्रपना नहीं प्रतिभासता है। हां, कार्यके देखनेसे कारणविशेषरूप क्षेत्र तो सामान्यरूपसे अनुमानका विषय होता हुआ भला वास्तविक कैसे हो सकेगा। क्योंकि हम बौद्धोंने सामान्यको जाननेवाले अनुमानका विषय अवस्तु माना है। इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहा है। सिद्धान्ती कहते हैं कि वह भी युक्तिरहित कहनेकी टेव रखनेवाला है ।