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तत्वाचिन्तामणिः
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न खादिभिरनेकांतस्तेषां सांशत्वनिश्चयात् ।। निरंशत्वे प्रमाभावाद्यापित्वस्य विरोधतः ॥ ३४॥ विशेषणविशेष्यत्वं संबंधः समवायिभिः।
समवायस्य सिध्येत द्वौ वः प्रतिनियामकः ॥३५॥
उस एक विशेष्य विशेषणभाव सम्बन्धकरके समवायवाले अनेक पदार्थ एक ही समयमें एकसाथ तो विशिष्ट नहीं किये जासकते हैं। क्योंकि भिन्न भिन्न देश भिन्न भिन्न काल, आदिमें पदार्थ वर्त्त रहे हैं। अन्यथा यानी एक ही विशेष्य विशेषण भावसे अनेक मिन्नदेशवाले और भिन्नकालवाले पदार्थोका गुण आदिसे सहित हो जानापन यदि मान लिया जायगा तो आतिप्रसंग हो जायगा। चाहे जहां
और चाहे जब चाहे जिसके साथ कोई भी सहित बन बैठेगा। यदि वैशेषिक आकाश, दिशां, देश, आदिकसे व्यभिचार दें कि ये निरंश या एक होते हुए भी भिन्न भिन्न देश आदिमें वृत्ति हैं । किन्तु इन करके पदार्थ विशिष्ट हो रहे हैं, सो यह व्यभिचारदोष हम जनोंके यहां लागू नहीं होता है । क्योंकि उन आकाश, दिशा, आदिकोंको अंशसहितपनेका निश्चय हो रहा है । बम्बई, कलकत्ता, यूरुप अमेरिका, नन्दीश्वरद्वीप, नरकस्थान, स्वर्ग, आदिक स्थानोंमें ठहरे हुये आकाशके प्रदेश न्यारे न्यारे हैं। मेरुकी जडसे छओं दिशाओंमें मानीं गयीं आकाशके प्रदेशोंकी श्रेणीरूप दिशायें भी प्रत्येक स्थानोंकी अपेक्षा सांश है। यदि आकाश आदिकोंको वैशेषिकोंके मत अनुसार निरंशपना माना जायगा तो उन उन स्थानोंमें नहीं समाजानेके कारण आकाश आदिके व्यापकपनेका विरोध होगा । जो सांश होता हुआ अनेक देशोंमें फैला हुआ है वही व्यापक हो सकता है। निरंश पदार्थ तो एक प्रदेशके अतिरिक्त दो में भी ठहर नहीं सकता है । कुछ अंशसे एक प्रदेशपर और दूसरे कुछ अंशसे अन्य प्रदेशपर ठहरनेसे तो सांशता हो जावेगी। तथा समवायियोंके साथ समवायका विशेष्य विशेषण सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं सिद्ध हो पावेगा, जो कि तुम वैशेषिकोंके यहां प्रत्येक समवायीका नियामक हो सके। अतः ज्ञान, आत्मा, आदिकोंमें . भिन्न पडा हुआ समवाय और उनके भी बीचमें पडा हुआ माना गया विशेष्य विशेषण भाव सम्बन्ध ये दोनों भी नियत सम्बन्धियोंकी व्यवस्था नहीं करा सकते हैं । जो बिचारे स्वयं नियत होकर कहीं व्यवस्थित नहीं हैं, वे दूसरोंकी क्या व्यवस्था करेंगे ? जो पंडिताभास स्वयं त्रियोगसे बहिरंगमें चारित्रभ्रष्ट है वह अन्यको सदाचार मार्गपर नहीं लगा सकता है। .. न हि भेदैकांते समवायसपवायिनां विशेषणविशेष्यभावः प्रतिनियतः संभमति, यतः समवायस्य कचिनियमहेतुत्वे प्रतिनियामकः स्यात् । .
समवाय और समवायियोंके सर्वथा एकान्तसे भेद माननेपर उनका मान लिया गया विशेष्य