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तत्वार्थचिन्तामणिः
अनन्तर पीत, नील, आदि आकारोंमें निश्चय उत्पन्न हो जाता है । अतः उस इन्द्रियजन्य ज्ञानमें उन वस्तुभूत पीत आदि आकारोंका प्रतिभास है । ग्रन्थकार कहते हैं कि तब तो तिस ही कारण यानी अभ्यास आदि सामग्रीकी पूर्णता होनेपर संख्याका निश्चय हो जानेसे संख्याकी ज्ञप्ति भी इन्द्रियजन्य ज्ञानमें मानलो। उस संख्याके अभ्यास आदि कारणोंकी सम्पूर्णता होनेपर सभी जीवोंके अक्षव्यापार द्वारा संख्यामें निर्णय होना असिद्ध नहीं है। इस प्रकार पीत आदि आकारोंसे संख्यामें कोई भी विशेषता नहीं दीखती है अर्थात्-पीत आदि आकारोंके समान संख्या भी वस्तुभूत है। - संख्यावत्पीताद्याकाराणामपि वस्तुन्यभाव एवेति चायुक्तं, सकलाकाररहितस्य वस्तुनोऽप्रतिभासनात् पुरुषाद्वैतवत् । विधृतसकलकल्पनाकलापं स्वसंवेदनमेव स्वतः प्रतिभासमानं सकलाकाररहितं वस्तु मतमिति चेत् तदेव ब्रह्मतत्त्वमस्तु न च तत्मतिमासते कस्यचिन्नानकात्मन एव सर्वदा प्रतीतेः।
संख्याके समान पीत आदि आकारोंका भी वस्तुभूत पदार्थोमें अभाव ही है, इस प्रकार वैभाषिक बौद्धोंका कहना तो युक्तिरहित है। क्योंकि सम्पूर्ण आकारोंसे रहित रीती वस्तुका ज्ञान नहीं हो सकता है, जैसे कि आप बौद्धोंने सभी आकारोंसे रहित ब्रह्माद्वैतका ज्ञान होना नहीं माना है । यदि बौद्धोंका यह मत होय कि सम्पूर्ण कल्पनाओंके समुदायसे विशेषरूप करके धुल गया (रहित) स्वसंवेदन ज्ञान ही स्वयं अपने आपसे सम्पूर्ण आकारोंसे रहित होकर प्रतिभास रहा वस्तुभूत है, स्वलक्षण, पीत आकार, नील आकार, संख्या, आदि कोई पदार्थ वास्तविक नहीं है, इस प्रकार युक्तिरहित बौद्धोंके कहनेपर तो वही अद्वैतवादियोंका परब्रह्मतत्त्व मान लिया गया समझो और वह परब्रह्मतत्त्व तो किसीको भी नहीं प्रतिभास रहा है । अनेक और एकस्वरूप ही पदार्थोकी सदा सबको प्रतीति हो रही है।
- सर्वस्य प्रतीत्यनुसारेण तत्त्वव्यवस्थायां बहिरंतश्च वस्तुभेदस्य सिद्धः। कथं पीताचाकारवत् संख्यायाः प्रतिक्षेपः । प्रतीत्यतिकमे कुतः स्खेष्टसिद्धिरित्युक्तमायं । ततः
____ सभी प्रामाणिक पुरुषोंकी प्रतीति होनेके अनुसार तत्त्वोंकी व्यवस्था माननेपर तो बहिरंग और अंतरंग वस्तुओंके भेदोंकी सिद्धि हो रही है। इस कारण पीत, नील, आदि आकारोंके समान भला संख्याका खण्डन कैसे कर सकते हो ? अर्थात् नहीं । यदि प्रतीतियोंका अतिक्रमण किया जायगा तब तो बौद्धोंके यहां अपने अभीष्ट तत्त्वोंकी सिद्धि कैसे हो सकेगी ? इसको हम बहुलतासे पूर्वमें कह चुके हैं। तिस कारण यह सिद्धान्त किया जाता है कि. सा चैकत्वादिसंख्येयं सर्वेष्वर्थेषु वास्तवी । - विद्यमानापि निर्णीति कुर्याद्धेतोः कुतश्चन ॥ १९ ॥