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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
हैं। वे वस्तुभूत नहीं है। निर्विकल्पक ज्ञान तो सत्य । हां, निश्चयात्मकज्ञान असत्य है, निरालम्बन हैं। इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि यों तो सर्वथा वरूप रहित शश, मनुष्य. मत्स्य आदि सम्बधी विषाणों ( सीगों) में भी आपेक्षिक धोके और उस संख्याके रहनेका प्रसंग होगा । यदि तुम बौद्ध यों कहो कि उनकी कल्पना बुद्धियोंमें संख्या विद्यमान है ही, ऐसा कहनेपर तो हम पूछते हैं कि क्या वे कल्पनायें स्वरूपसे सत्य है ? अथवा क्या वे स्वरूपसे सत्य नहीं हैं ? बताओ ? तिन दो पक्षोंमें पिछला पक्ष तो अपने मतसे विरोध होनेके कारण ठीक न पडेगा। बौद्धोंने कल्पनाको अपने कल्पनारूप शरीर करके तो सत्य ही माना है। अन्यथा कल्पना कल्पनारूप न ठहर सकेगी, वस्तुभूत बन बैठेगी । प्रथमपक्षके अनुसार कल्पनाओंको यदि सत्य माना जायगा तब तो स्वरूपसे सत्य कल्पनाओंमें ठहरी हुई संख्या भला अब परमार्थ रूपसे क्यों न हो सकेगी ? यदि पुनः बौद्ध यों कहें कि बहिरंग वस्तुओंके समान उन स्वरूप सत्य कल्पनाओंमें भी दूसरी अन्य कल्पनाओंसे आरोपा गया आपेक्षिकपना अन्तरहित होकर वर्तता है, अतः वे कल्पनायें कल्पित हैं और कल्पनासे आरोपी गयी द्वित्व, आदि संख्या भी आपेक्षिक है। वस्तुभूत नहीं है, ऐसा कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तब हो सकता था कि यदि कल्पना द्वारा आरोपितपने करके आपेक्षिकपना व्याप्तसिद्ध हो जाता । किन्तु कल्पितपनेसे व्याप्त हो रहा आपेक्षिकपना सिद्ध नहीं हुआ है । अर्थात्-जो जो आपेक्षिक है वे बे झूठी कल्पनाओंसे आरोपित हैं, यह व्याप्ति ठीक नहीं है। दुग्ध, घृत, द्राक्षा, गुड, शर्करा आदिमें माधुर्य तारतम्य रूपसे आपेक्षिक है । किन्तु कल्पित नहीं है । रस गुणकी माधुर्य पर्यायके अविभाग प्रतिच्छेदोंको न्यूनता और अधिकतासे हुआ मीठापन वस्तुभूत है। इसी प्रकार स्थूलत्व, सूक्ष्मत्व मी अकल्पित होते हुये आपेक्षिक हैं । अतः आपेक्षिक होती हुई भी संख्या पारमार्थिक है।
न चापेक्षिकता व्याप्ता नीरूपत्वेन गम्यते । वस्तुसत्खपि नीलादिरूपेष्वस्याः प्रसिद्धितः ॥ १८ ॥
और आपेक्षिकपना निःस्वरूपपनेसे व्याप्त हो रहा नहीं जाना जा रहा है। क्योंकि वास्तविक रूपसे सत्स्वरूप भी नील, बढिया नील, बहुत अच्छा नील, आदि रूपोंमें इस आपेक्षिकपनेकी प्रसिद्धि हो रही है। किन्तु वे नील, नीलतर, नीलतम, आदि रंग गगनकुसुमके समान निःस्वरूप तो नहीं हैं।
नीलनीलांतरयोहि रूपो यथा नीलापेक्षं नीलांतररूपं तथा नीलांतरापेक्षं नीलमिति नीलादिरूपेषु वस्तुसत्स्वपि भावादपेक्षिकताया न कल्पनारोपितत्वेन व्याप्तिरवगम्यते यतः संख्यांतरया बहिरंत रूपत्वं ।