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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः बाध्यबाधकभाव मानना आवश्यक हो जाता है और बाध्यबाधकभावको न माननेपर भी नियमसे बाध्यबाधकभाव आ टपकता है " सेयमुभयतः पाशा रज्जुः"। न हि बाध्यबाधकभावादेरनिष्टस्य बाधनं स्वतः सर्वेषां प्रतिभासते, विप्रतिपत्यभावप्रसंगात् । संविन्मात्रप्रतिभासनमेव तत्प्रतिभासनमिति चेत् न, तस्यासिद्धत्वात् । परतो बाधकादनिष्टस्य बाधनमिति चेत् सिद्धस्तर्हि बाध्यबाधकभावः इति तन्निराकरणप्रकरण संबंधं प्रलापमात्रं । संवृत्या अनिष्टस्य बाधनाददोष इति चेत् तर्हि तत्वतो न वा बाध्य - बाधकभावस्य बाधनमिति दोष एव । पराभ्युपगमात् तद्वाधनमिति चेत् तस्य सांवृतत्वं दोषस्य तदवस्थत्वात् । पारमार्थिकत्वेपि तदनतिक्रम एवेति सर्वथा बाध्यबाधकभावाभावे तत्त्वतो नानिष्टबाधनमुपपन्नम् । 1 ५९५ बौद्धको अभीष्ट नहीं ऐसे बाध्यबाधकभाव कार्यकारणभाव आदिकी बाधा होना सभीको अपने आपसे तो नहीं प्रतिभास रहा है। क्योंकि सबको स्वयं दीख जाता तब तो विवाद होनेका प्रसंग ही नहीं आता। यदि बौद्ध यों कहें कि केवलशुद्धसंवेदनका ज्ञान होना ही उस अनिष्ट बाध्यबाधक आदिकी बाधाका प्रतिभास है, आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना। क्योंकि अकेले उस शुद्ध संवेदन के प्रतिभास होने की सिद्धि नहीं हो सकती है । यदि बौद्ध दूसरोंके माने गये बाधकप्रमाणोंसे स्वयंको अनिष्ट होरहे बाध्यबाधकभाव आदिकी बाधा करेंगे तब तो सुलभतासे बाध्यबाधकभाव सिद्ध होगया । इस प्रकार उसके खण्डनके प्रकरणका सम्बन्ध लाना व्यर्थ बकना मात्र है। यदि पूर्वके समान व्यवहाररूप कल्पनासे अनिष्ट तत्त्वकी बाधा हो जानेके कारण उक्त दोष नहीं आते हैं यह कहोगे तब तो वास्तविकरूपसे बाध्यबाधकभावकी बाधा न हो सकी। अंड ऊप्रा ( एरंड ) की बंदूक लक्ष्यका वेध नहीं कर सकती है। इस प्रकार बौद्धोंके ऊपर दोष ही रहा । अर्थात् — वास्तविक रूपसे उन्हे बाध्यबाधक भाव मानना पडा । यदि दूसरे वादियोंके स्वीकृत किये गये बाध्यबाधक भावसे उसकी बाधा करोगे तब तो उस दूसरोंके स्वीकारको यदि कल्पित माना जायगा तो वही दोष वैसा का वैसा ही अवस्थित रहा। यानी कल्पित बाध्यबाधक भावसे अनिष्ट बाध्यबाधक भावकी बा नहीं हो सकती है । अतः बाध्यबाधक भाव जमगया और यदि उस दूसरोंके मन्तव्यको वास्तविक माना जायगा तो भी उस दोषका अतिक्रमण नहीं ही हुआ। यानी बाधा माननेपर भी बाध्यबाधक भाव बन बैठा। इस प्रकार सभी ढंग से बाध्यबाधक भावको माने विना वास्तविक रूपसे अनिष्ट तत्वकी बाधा करना कथमपि सिद्ध नहीं हो पाता है । अनिष्ट तत्त्वकी बाधा माननेपर तो सुलभतासे वस्तुभूत बाध्यबाधक भाव बौद्धोंके गलें पड जायगा । टाला नहीं टल सकता है । कार्यकारणभावस्याभावे संविदकारणा । सती नित्यान्यथा व्योमारविंदादिवदप्रमा ॥ ९ ॥
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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