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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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1 श्रद्धानको प्रकृतिकी पर्याय कहना और सम्यग्दर्शनको आत्माका गुण कहने में वैयधिकरण्य दोष है । यहां तो वही किंवदन्ती चरितार्थ होती है कि " बाबा सोवें जा घरमें और पांव पसारे बा घर में " । इसलिये श्रद्धानको आत्माका ही गुण मानना चाहिये, प्रकृतिका नहीं । प्रधानस्यैव सम्यक्त्वाच्चैतन्यं सम्यगिष्यते । बुध्यध्यवसितार्थस्य पुंसा संचेतनाद्यदि ॥ १४ ॥ तदाहंकारसम्यक्त्वात् बुद्धेः सम्यक्त्वमस्तु ते । अहंकारास्पदार्थस्य तथाप्यध्यवसानतः ॥ १५ ॥ मनः सम्यक्त्वतः सम्यगहंकारस्तथा न किम् | मनःसंकल्पितार्थेषु तत्प्रवृत्तिप्रकल्पनात् ॥ १६ ॥ तथैवेन्द्रियसम्यक्त्वान्मनः सम्यगुपेयताम् । इन्द्रियालोचितार्थेषु मनःसंकल्पनोदयात् ॥ १७ ॥ इन्द्रियाणि च सम्यञ्चि भवन्तु परतस्तव । स्वाभिव्यञ्जकसम्यक्त्वादिभिः सम्यक्त्वतः किमु ॥ १८ ॥ अर्थस्वव्यञ्जकाधीनं मुख्यं सम्यक्त्वमिष्यते । इन्द्रियादिषु तद्वत्स्यात् पुंसि तत्परमार्थतः ॥ १९ ॥
यहां कपिल मतानुयायी कहते हैं कि आत्माके वास्तविक स्वरूप शुद्ध चैतन्य में समीचीनपना और मिथ्यापना कुछ नहीं है, किन्तु संसार अवस्थामें आत्माके साथ प्रकृतिका संसर्ग लगरहा है, अतः प्रकृतिके ही समीचीनपनेसे चैतन्य भी समीचीन मानलिया जाता है । जैसे कि डंक की चमकसे रत्नमें चमक आजाती मानी गयी है । बुद्धिके धर्मोका आत्मामें उपचार करनेका निमित्त यह है कि बुद्धि करके समीचीन रूपसे निश्चित करलिये गये अर्थका आत्माके द्वारा समीचीन चेतन ( अनुभव ) होता है । इस कारण प्रकृतिरूप बुद्धिकी ओर से औपाधिक भाव आत्मामें आजाते हैं अर्थात् वैधिकरण्य दोष निवारणके लिये श्रद्धानके समान सम्यक्त्वको भी हम प्रधानका परिणाम मानते हैं। आचार्य समझाते हैं कि यदि सांख्य इस प्रकार कहेंगे उसपर हम आपादन करते हैं कि तब तो तुम्हारे मतमें बुद्धिका भी समीचीनपना उसकी गांठका न माना जावे, आपके मतानुसार माना गया बुद्धिके परिणाम अहंकारकी समीचीनतासे महत्तत्त्वरूप बुद्धिको समीचीनपना प्राप्त होजावेगा। क्योंकि जैसे बुध्दिसे समीचीन निर्णीत किये हुए अर्थकी संचेतना कहने से पुरुषके चैतन्यको सम्यक्त्व प्राप्त