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संपादकीय वक्तव्य
श्रीतत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारका यह दूसरा खंड पाठकोंके हाथ प्रथम खंडके प्रकाशनके बाद करीब एक वर्षमें दे रहे हैं । हम जानते हैं कि इस ग्रंथके स्वाध्यायकी विद्वत्संसारमें बडी उत्कंठा है। हमारे कार्यालयमें दूसरे खंडके संबंधमें, एवं आगेके खंडोंके संबंधमें पूछताछ करते हुए अनेक पत्र आते रहते हैं । इस ग्रंथके प्रकाशनसे न्यायविषयके वेत्ता विद्वानोंका महान् उपकार हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
श्री महर्षि विद्यानंद स्वामी जैनश्रुतपरंपराके प्रभावक आचार्य हैं । उनकी विषयविवेचनशैली और तत्वनिर्णयव्यवस्था अत्यंत सुंदर व सुसंबद्ध है । परवादियोंकी शंकाकुशंकावोंको विविधरूपसे उठाकर उनको हरतरहसे समाधान करनेकी अपूर्व पद्धतिको आचार्य महोदयने अपने ग्रंथोंमें अपनाया है । आपकी शैली निराली है।
श्री उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र एक सूत्र ग्रंथ होनेपर भी उन सूत्रोंमें कितना विस्तृत, व्यापक और गूढार्थ भरा हुआ है, इस बातकी प्रतीति आचार्य महोदयकी कृतिसे अच्छीतरह हो सकती है। आचार्य महोदयके द्वारा विरचित अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा और श्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथ सचमुचमें रत्नत्रय हैं । इन कृतियोंके द्वारा श्रुतपरंपराका मार्ग बहुत ही उज्वल हुआ है । सैद्धांतिक विषयोंको न्यायशास्त्रकी युक्ति प्रयुक्तियोंकी कसोटीसे कसकर, पूर्वपक्ष उत्तरपक्षके न्यायसम्मत मार्गसे परीक्षा कर लोकके सामने रखनेसे तत्वज्ञानकी निर्दोषता सिद्ध होती है । निर्दोष तत्वज्ञानके आश्रयसे ही विश्वकल्याण होता है। इसीलिये विश्वबंधुताको धारण करनेवाले आचार्यपुंगव ऐसे प्रयत्न में ही अपना समय लगाते रहते हैं । मूलग्रंथ जितना महत्वपूर्ण है उसकी टीका भी उसके अनुरूप ही
___ श्रीमान् तर्करत्न सिद्धांतमहोदधि पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदयने प्रकृत ग्रंथके प्रमेयको सुलभ शैलीसे समझानेमें कोई कमी नहीं की है । अतः जिज्ञासु विद्वानोंके लिए प्रकृत विषयको समझनेके लिए बड़ी सहायता हुई है। इसीलिए आगेके खंडोंके प्रकाशनके प्रति विद्वत्संसारमें बडी उत्कंठा लगी हुई है। इस संबंधमें हमारे पास अभी हाल लंडनसे आये हुए एक पत्रके कुछ अंशोंको उपस्थित करते हैं, जिससे ज्ञात हो जायगा कि प्रकृत ग्रंथके संबंधमें विद्वानों के हृदयमें कितमा बादर है।