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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
स्थामें उनको रोके रखनेकी शक्ति न रहनेपर वे खसक जाते हैं । पानीकी गोल बूंदके समान लवण समुद्रका जल सोलह हजार योजन ऊंचा उठा हुआ डट रहा है । वेलन्धर जातिके नागकुमारोंके नगर तो नियोगमात्रको साधते हैं । अतः पदार्थोको स्वाश्रय मानना ही आवश्यक है। फिर भी मूत, भारी, पदार्थके अधःपतनको रोकनेके लिये व्यवहार नयसे आधारकी आवश्यकता है । अनेक पदार्थ अपने अपने आधार द्रव्योंमें हैं । और " लोकाकाशेऽवगाहः " के अनुसार सर्व पदार्थ आकशमें हैं तथा आकाश स्वयं अपना आधार है।
व्योमवत्सर्वभावानां स्वप्रतिष्ठानुषंजनम् । कर्तुं नैकान्ततो युक्तं सर्वगत्वानुषंगवत् ॥ २० ॥
आकाशके समान सभी पदार्थोंको एकान्त रूपसे स्वयं अपनेमें प्रतिष्ठित रहनेका प्रसंग करनेके लिये आपादन करना युक्त नहीं है । जैसे कि सभी पदार्थोंको आकाशद्रव्यके सदृश सर्व व्यापकपनेका प्रसंग देना समुचित नहीं है । भावार्थ-जैसे आकाशके समान सभी पदार्थ सर्व व्यापक नहीं हो सकते हैं, तैसे ही स्वप्रतिष्ठ भी नहीं हो सकते हैं। निश्चय नयके अनुसार व्यवस्थाको हम पूर्वमें कह चुके हैं । यह व्यवहार नय और प्रमाणसे आधार आधेयकी निरूपणा है । विशेष बात यह है कि त्रिलोकसारमें आकाशकी श्रेणी और प्रतरको नापा है । अतः बरफीके समान सब ओरसे चौकोर अलोकाकाश सिद्ध हो ही जाता है । यह प्रबल युक्ति है तथा वीरनन्दीसिद्धान्त चक्रवर्तीके बनाये हुये आचारसार ग्रन्थमें तृतीयाधिकारका चौवीसवां श्लोक है कि " व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं समं धनं । भावावगाहहेतुश्चानन्तानन्तप्रदेशकम् ॥” इससे भी अलोकाकाशका चौकोरपना आगमसिद्ध है । उसीके तेरहवें श्लोक अनुसार सबसे छोटे परमाणुका संस्थान भी चौकोर उन्होंने बताया है । " अणुश्च पुद्गलोभेद्यावयवः प्रचयशक्तितः । कायश्च स्कन्धभेदोत्थश्चतुरस्रस्त्वतीन्द्रियः " ॥ अतः अखण्ड निरवयव परमाणु भी निरंश होता हुआ बरफीके समान छः पैलवाला चौकोर मानना चाहिये । सबसे छोटे परमाणु और सबसे बड़े आकाशका संस्थान ( व्यञ्जनपर्याय ) सदृश है । अब इसमें कोई संशय नहीं रहा।
निश्चयनयात् सर्वे भावाः स्वप्रतिष्ठा इति युक्तं न पुनः सर्वथा व्योमवत्तेषां सर्वगतवामूर्त्तत्वादिप्रसंगस्यापि दुर्निवारत्वात् । सर्वद्रव्याणां सर्वगतत्वेको दोष इति चेत् प्रतीतिविरोध एवामूर्त्तत्वादिवदिति वक्ष्यामः । प्रतीत्यतिक्रमे तु कारणाभावात् सर्वमसमञ्जसं मानमेयं प्रलापमात्रमुपेक्षणीयं स्यादिति यथाप्रतीतिसिद्धमधिकरणमधिगम्यमर्थानाम् ।
निश्चयनयसे सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं अपने आपमें भले प्रकारसे प्रतिष्ठित हो रहे हैं। यह कहना युक्तिपूर्ण है । किन्तु फिर सभी प्रकारसे आकाशके समान स्वाश्रित हैं । यह तो ठीक नहीं।
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