SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः नामसाध्यसाधनभावः परस्परमतद्भावभावित्वप्रतीतेर्व्यवतिष्ठते तथानिधूमादीनां साध्यसाधनभावोऽपि तद्भावभावित्वप्रतीतेबांधकाभावात् ।। वस्तुस्वरूप भी पदार्थाका कार्यकारण भाव माननेपर फिर उनका अभाव कहना और उन कार्यकारणके अभावको वस्तु कहना यह तो युक्त नहीं है । क्योंकि ऐसा कहने में व्याघातदोष है । अर्थात् दोनों वाक्य परस्पर विरोधी हैं । जैसे कि किसी पदार्थमें नीलेसे भिन्नपना स्थापकर पुनः उसमें नीलेतरपनेका अभाव कहना व्याघातयुक्त होता है । तिस कारण किसी भी प्रमाणसे किन्हीं अर्थोका यदि परमार्थरूपसे अकार्यकारणभाव सिद्ध करोगे, तब तो तिस ही कारण कार्यकारणभाव भी सिद्ध हो जावेगा । दोनोंकी प्रतीतियोंका कोई अन्तर नहीं है । जिस ही प्रकार गौ, भैंस पुस्तक, चौकी, आदिका परस्परमें अन्वय, व्यतिरेकसे होने न होनेपनकी नहीं प्रतीत होनेके कारण असाध्यसाधनपना व्यवस्थित हो रहा है । तिसी प्रकार अग्नि, धूम, अनित्यत्व, कृतकत्व, आदिकोंका उसके होनेपर होनापन प्रतीत होनेसे साध्यसाधन भाव भी व्यवस्थित हो जाता है, कोई बाधक प्रमाण नहीं है । अतः ज्ञाप्य ज्ञापक और कार्यकारणभावको प्राप्त हुए पदार्थोंमें साध्यसाधनपना प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है। - नन्वकस्मादग्निं धूम वा केवलं पश्यतः कारणत्वं कार्यत्वं वा किं न प्रतिभातीति चेत् किं पुनरकारणत्वमकार्यत्वं वा प्रतिभाति ? सातिशयसंविदा प्रतिभात्येवेति चेत्, कारणत्वं कार्यत्वं वा तत्र तेषां न प्रतिभातीति कोशपानं विधेयम् । अस्मदादीनां तु तदप्रतिभासनं तथा निश्चयानुपपत्तेः क्षणक्षयादिवत् । . . ___ बौद्ध शंका करते हैं कि किसी भी कारणवश नहीं किन्तु यों ही केवल अग्नि अथवा अकेले धूमको देखनेवाले पुरुषको अग्निमें कारणपन और धूममें कार्यपना भला क्यों नहीं प्रतिभासता है ? जब कि वह उसका स्वभाव है तो अग्निके दीखनेपर उसकी कारणता या साध्यता भी अवश्य दीखजानी चाहिये । तथा बालकके द्वारा भी धूमके दीख जानेपर उसका कार्यपन या हेतुता स्वभाव भी प्रतीत हो जाना चाहिये था । ऐसा कहोगे तब तो हम जैन भी कटाक्ष करते हैं कि आपकी मानी हुयी वह्निमें अकारणता तथा धूममें अकार्यता क्या फिर ज्ञात हो जाती है ! तुम्ही बताओ। यदि आप बौद्ध यों कहो कि चमत्कारक विशेष बुद्धिमानोंको तो उनकी अकारणता और अकार्यता प्रतिभास जाती ही है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि उन वह्नि धूमोंमें प्रतिभाशाली विद्वानोंको कारणता अथवा कार्यता नहीं दीखती है। इस विषयकी आपने सौगन्द करली है । अर्थात् विचारशाली पुरुषोंको तो वहां कार्यता और कारणता भी दीख जाती है । हां ! हम सारिखे साधारण लोगोंको तो तिस प्रकार निश्चय न होनेके कारण इनका प्रतिभास नहीं होता है। जैसे कि स्वलक्षणका प्रत्यक्ष हो जानेपर भी उसके अभिन्न स्वभाव क्षणिकपनेका निश्चय न होनेसे प्रत्यक्ष द्वारा उल्लेख्यज्ञान नहीं हो पाता आपने माना है । यद्यपि दृष्ठान्त उभयको मान्य होना चाहिये
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy