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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
अन्य आत्माओंमें भी उन प्रशम आदिकोंके होते सन्ते ही हो रही हैं, इस बातका भी निर्णय कर लो। और जैसी शरीरव्यवहार आदिकी विशेषतायें तो अपनी आत्मामें उन प्रशम आदिकोंके न होनेपर प्रमाणों द्वारा जान ली गयी हैं तैसी ही विशेषतायें दूसरी आत्माओंमें भी देखी जावेंगी तो वे उन प्रशम आदिकोंके अभावकी समझानेवालीं क्यों न हो जावेंगी ? । तथा जो शरीरके व्यवहारोंकी या वचनोंकी विशेषतायें संशय पड़े हुए स्वभावोंसे युक्त हैं यानी प्रशान्त या क्रोधी दोनों प्रकारके जीवोंमें पायी जाती हैं, वे तो प्रशम आदिके संशयज्ञान करानेका कारण हो जावेंगी । संदिग्धविशेषताओंसे प्रशम आदिकोंका निर्णीत ज्ञान न हो पायेगा । सर्व ही सम्यग्दृष्टिओंको अवश्य जान लो, यह कोई अनिवार्य कार्य नहीं है । इस प्रकार युक्तियोंसे हम कह सकते हैं । भावार्थप्रशम आदिकोंके भाव और अभावको निर्णय करनेका उपाय तथा संशयका उपाय विद्यमान है ।
नन्वेवं यथा सरागेषु तत्त्वार्थश्रद्धानं प्रशमादिभिरनुमीयते तथा वीतरागेष्वपि तचैः किं नानुमीयते ? इति चेन्न, तस्य स्वस्मिन्नात्मविशुद्धि मात्रत्वात् सकलमोहाभावे समारोपानवतारात् स्वसंवेदनादेव निश्चयोपपत्तेरनुमेयत्वाभावः । परत्र तु प्रशमादीनां तल्लिंगानां सतामपि निश्चयोपायानां कायादिव्यवहारविशेषाणामपि तदुपायानामभावात् ।
यहां फिर शंका है कि इस प्रकार तो जैसे रागसहित सम्यग्दृष्टि जीवोंमें प्रशम आदि गुणोंके · द्वारा तत्त्वार्थोके श्रद्धानका अनुमान कर लिया जाता है, तैसे ही वीतरागसम्यग्दृष्टियों में भी वह समयग्दर्शन उन प्रशम आदिकोंके द्वारा क्यों नहीं अनुमित हो जाता है ? बताओ । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है । क्योंकि वह वीतरागजीवोंका तत्त्वार्थ-श्रद्धान तो अपने केवल आत्म-विशुद्धिरूप है । छद्मस्थ जीवोंको आत्माकी विशुद्धियोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ही निर्णय होना बनता है । सम्पूर्ण दर्शनमोहनीय कर्मके अभाव हो जानेपर ही उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनरूप विशुद्धि में कोई संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, और अज्ञानरूप समारोपोंका अवतार नहीं है । संशय आदि तो मोहके उदय होनेपर हो सकते थे । मोहके अभावमें नहीं । अतः प्रत्यक्ष-गम्य हो जानेके कारण ही वीतराग सम्यक्त्वमें अनुमानसे जानागयापन नहीं है । वीतरागपुरुष अपने वीतरागसम्यक्त्वको स्वसंवेदनसे जान लेते हैं । दूसरी आत्माओंमें रहनेवाले वीतराग सम्यग्दर्शन को जाननेका तो हमारे पास कोई उपाय नहीं है । दूसरे वीतराग सम्यग्दृष्टियोंमें भले ही उस सम्यग्दर्शन के ज्ञापक लिंग माने गये प्रशम आदिक उपाय विद्यमान हैं और शरीर, वचन आदिकी चेष्टायें भी विद्यमान हैं, किन्तु फिर भी वे वीतराग सम्यक्त्वको निर्णय करानेवाले उपाय नहीं हैं। विशेषकर वीतराग सम्यक्त्वके होने पर ही होनेवाली उन काय, वचन आदिकी चेष्टाओं और विशिष्ट प्रशम आदिकोंके भी जाननेका उपाय छद्मस्थ जीवोंके पास नहीं है, जो कि उस वीतराग सम्यक्त्वको जाननेके उपाय मान लिये गये है, जिससे कि दृष्टान्तमें व्याप्तिका ग्रहण होसके । अतः वीतराग सम्यक्त्वका स्वयंको