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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ही कार्यकारणता है, उससे भिन्न नहीं । अतः केवल इतने ही भाव और अभावरूप तत्त्वको विषय लेकर उत्पन्न होनेवाले झूठे विकल्पज्ञान कार्य, कारणोंको विषय कर रहे हैं, और असत्य अर्थको विषय करनेवाले वे विकल्पज्ञान प्रत्येक असम्बद्ध पदार्थों को भी परस्पर सम्बद्धोंके समान दिखला देते हैं ( ११ ) । दूसरी बात हम यह पूंछते हैं कि यह कार्यकारणभावको प्राप्त हुआ अर्थ क्या भिन्न है या अभिन्न है ? यदि भिन्न है तो सर्वथा भिन्न पदार्थमें संयोजना कैसे हो सकती है ? क्योंकि वे तो अपने अपने न्यारे स्वभावों में व्यवस्थित हो रहे हैं । यदि अभिन्न मानोगे तो अभिन्न यानी अकेले में कार्यकारणती भी क्या होगी ? अर्थात् नहीं । सम्बन्धवादियोंका यह भी विचार हो कि हम भिन्नका या सर्वथा अभिन्नका सम्बन्ध नहीं मानते, किन्तु एक सम्बन्ध नामके पदार्थसे जडे हुए पदार्थों का सम्बन्ध मानते हैं । इसपर भी हम बौद्ध पूछेंगे कि न्यारे पडे हुए भिन्न . सम्बन्ध विभक्त पडे रहनेपर वे कार्यकारणरूप दो पदार्थ भला मिले हुए ( चिपके हुए ) कैसे हो सकेंगे ? अर्थात् नहीं मिल सकते हैं ( १२ ) । अब ग्रन्थकार कहते हैं कि सो इस प्रकार बारह कारिकाओं द्वारा बौद्धोंका जैनोंके ऊपर ये दूषण उठाना समीचीन नहीं है । क्योंकि विशेष सम्बन्ध कार्यकारणभावमें जैसे ये दोष लगाये जाते हैं, वैसे ही बौद्धोंको अपने माने गये अकार्यकारणभाव में भी समानरूपसे वे दोष लागू हो जाते हैं । तिसीको स्पष्टकर कहते हैं । प्रतिनारायणके द्वारा नारायणके ऊपर चलाया हुआ चक्र पुनः उसीपर आघात करता है । वैसे ही सम्बन्धवादियोंके ऊपर बौद्धोंका बारह कारिकाओं द्वारा कुचक्र चलाना उनके ऊपर ही पडता है । देखिये । कार्यकारणभावो द्विष्ठ एव कथमसहभाविनोः कार्यकारणत्वाभ्यां निषेध्ययोरर्थयोवर्तते । न चाद्विष्ठोऽसौ सम्बन्धाभावत्वविरोधात् । पूर्वत्र भावे वर्तित्वा परत्र क्रमेण वर्तमानोऽपि यदि सोन्यनिस्पृह एवैकत्र तिष्ठन् कथमसम्बन्धः ? परस्य ह्यनुपपन्नस्याभावो ऽपि पूर्वत्र वर्तमानः पूर्वस्य च नष्टत्वेनाभावेऽपि परत्र वर्तमानोसावेकवृत्तिरेव स्यात् । पूर्वत्र वर्तमानः परमपेक्षते परत्र च तिष्ठन्पूर्वमतोऽसम्बन्धो द्विष्ठो एवान्यनिस्पृहत्वाभावादिति चेत् . कथमनुपकारं तथोत्तरमपेक्ष्यतेऽति प्रसंगात् । सोपकारकमपेक्षत इति चेत् नासतस्तदोपकारकत्वायोगात् । यदि पुनरेकेनाभिसम्बन्धात्पूर्वपरयोरकार्यकारणभावस्तदा सव्येतरविषायोः सस्यादेकेन द्वित्वादिनाभिसम्बन्धात् । तथा च सिद्धसाध्यता । द्विष्ठो हि कश्चिदसम्बन्धो नातोन्यत्तस्य लक्षणं येनाभिमतसिद्धिः । यदि पुनः पूर्वस्याभाव एव यो भावो - भावेऽभावस्तदुपाधियोगोऽकार्यकारणभावस्तदा तावेव भावाभावावयोगोपाधी किं नाऽकार्यकारणभावः स्यात्, तयोर्भेदादिति चेत्, शद्धस्य नियोक्तृसमाश्रितत्वेन भेदेऽप्यभेदवाचिनः प्रयोगाभ्युपगमात् । स्वयं हि लोकोऽयमेकमदृष्टस्य दर्शनेऽप्यपश्यंस्तददर्शने च पश्यन् विनाप्याख्यातृभिरकार्यमवबुध्यते । न च तथा दर्शनादर्शने मुक्त्वा कचिदकार्यबुद्धिरस्ति । न च तयोरकार्यादिश्रुतिर्विरुध्यते लाघवार्थत्वात् तन्निवेशस्य । या पुनरतद्भावाभावादकार्यगतिरुप ५५५
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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