SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः पाता है अर्थात् जो ही आपका नैरन्तर्य है । वही हमारा कथंचित् तादात्म्य है । तिस कारण प्रकृति अनुसार ही भिन्न हो रहे पदार्थोंकी अपने अपने स्वभाव में व्यवस्थिति होने के कारण उनका परस्पर में वास्तविक सम्बंध नहीं है । यह बौद्धोंका कहना युक्त नहीं है । क्योंकि जिस ही कारण से आप सम्बन्धका निषेध करते हैं उसी कारण से उनका सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। देखिये, पदार्थों के अपने अपने स्वभाव प्रतीत हो रहे हैं तथा स्वभाव और स्वभाववानोंका कथंचित् निकटपना और दूरपना भी जाना जा रहा है । हां! सर्वथा वह निकटवर्ती पर्यायके साथ निकटपना और दूरवर्ती पर्यायों के साथ दूरपना नहीं प्रतीत होता है । अर्थात् जैनजन किसी भी सम्बन्धको कथाचित् स्वीकार करते हैं, सर्वथा नहीं । मित्रता नामक सम्बन्धके समान शत्रुता ( प्रतियोगिता ) भी एक सम्बन्ध है । जिस सम देवदत्त के पास रुपया है उस समय उसका देवदत्त के साथ स्वस्वामिसम्बन्ध है, जिनदत्त के पास चले पर जिनदत्त के साथ उस रुपयेका स्वस्वामिसम्बन्ध है । कथंचित्संयोग, कथञ्चित् समवाय, कथंचित् तादात्म्य, कथंचित् जन्यजनकभाव आदि सभी सम्बन्धों में कथञ्चित् लगा देना चाहिये, तभी ठीक नाता जुड सकेगा । जब कि तिस स्वरूपसे पदार्थोकी स्थिति हो रही है वह एकान्तरूपसे भला सम्बन्धाभावको कैसे साध देवेगी ? जैसे कि एकान्तरूपसे सम्बन्धको सिद्ध नहीं कर पाती है । भावार्थ – “ प्रकृतिभिन्नानां स्वस्वभावव्यवस्थितेः " उस हेतुसे आप बौद्धोंने सम्बन्ध के अभावको पुष्ट किया है । किन्तु उसी हेतुसे सम्बन्ध पुष्ट हो जाता । पर्याय और पर्यायीका सम्बन्ध माने विना, अपने अपने स्वभावोंमें पदार्थोंकी व्यवस्था होना नहीं बन सकता है । ५४५ न चापेक्षत्वात् सम्बन्धस्वभावस्य मिथ्याप्रतिभासः सूक्ष्मत्वादिवद सम्बन्धस्वभावस्यापि तथानुषंगात् । न चासम्बन्धस्वभावोऽनापेक्षिकः कंचिदर्थमपेक्ष्य कस्यचित्तव्यवस्थितेरन्यथानुपपत्तेः स्थूलत्वादिवत् । प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमानो अनापेक्षिक एव तत्पृष्ठभाविना तु विकल्पेनाध्यवसीयमानो यथापेक्षिकस्तथा वास्तवो भवतीति चेत्, संबन्धस्वभावेपि समानं । न हि स प्रत्यक्षे न प्रतिभासते यतोऽनापेक्षिको न स्यात् । बौद्ध कहते हैं कि जैसे सूक्ष्मत्व, ह्रस्वत्व, आदि धर्म अपेक्षासे उत्पन्न होनेके कारण झूठे हैं, उसीके समान अपेक्षा जन्य होनेसे संबन्ध स्वभावका झुंठा प्रतिभास हो रहा है । अर्थात् — आमले की 1 अपेक्षा बेर छोटा है और बेरकी अपेक्षा फालसा छोटा है। यह छोटापन कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं. है । वस्तुभूत होनेपर तो परिवर्तन ( बदलना ) नहीं होना चाहिये था, किन्तु छोटा भी दूसरे की अपेक्षा उसी समय बडा होरहा है । ऐसे ही गुरुशिष्यसम्बन्ध स्वस्वामिसंबन्ध भी अपेक्षासे ही है । शिष्य के अधिक पढजानेपर गुरु भी चेला बन जाता है, धनिक हो जानेपर सेवक भी स्वामी हो जाता है, यहांतक कि स्वयं अपना पुत्र आप हो जाता है। लोकमें एक व्यक्तिके साथ मामा, साला, आदि कैई सम्बन्ध हो जाते हैं, अतः नाते सब झूठे हैं। अब आचार्य उत्तर कहते हैं कि यह नहीं समझना । यों तो पदार्थोंके असम्बन्ध स्वभावको तिस प्रकार झूठे जाननेका प्रसंग होगा । 1 69
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy