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तवार्थचिन्तामणिः
है और वह तादात्म्य तो स्वरूपका एकमएक होकर चुपक जाना है, किन्तु वह श्लेष हो जाना तो सम्बन्धियोंके दोपना होनेपर अयुक्त ही है, क्योंकि विरोध है । अर्थात् स्वतन्त्र दो पदार्थोका एकमएक हो जाना स्वरूप तादात्म्य बनता नहीं है । तथा उन सम्बन्धियोंकी एक संख्या होनेपर भी सम्बन्ध होना नहीं बनता है। दो सम्बन्धियोंके न होनेपर उस सम्बन्धकी घटना नहीं है। क्योंकि सम्बन्ध दो आदिमें स्थित रहनेवाला माना गया है। अकेलेका कोई सम्बन्ध नहीं है । एक खम्भेका कोई द्वार नहीं है । एक किनारेकी नदी भी नहीं है, अन्यथा यानी एकमें ही रहनेवाला सम्बन्ध मान लिया जाय तो अतिप्रसंग हो जायगा । घट घटका या आत्मा, आत्माका भी रूप श्लेष हो जाना चाहिये । जैन लोग तादात्म्यको रूपश्लेष न मानकर उन उन सम्बन्धियोंके अन्तरालरहितपनेको यदि रूपश्लेष कहें यह भी उनका कहना अयुक्त है । क्योंकि वह निरन्तरता अन्तरालका अभावरूप है । अतः वास्तविक नहीं मानी जा सकती है। विरहका तुच्छ अभाव वस्तुभूत नहीं है। वैशेषिकोंने ही तुच्छ अभावको पदार्थ माना है, जैनोंने नहीं । यदि रूपश्लेषका अर्थ दोनोंकी परस्परमें प्राप्ति हो जाना स्वरूप माना जाय. तो भी पूर्णरूपसे या एकदेशसे प्राप्ति ( संसर्ग ) का प्रश्न उठानेसे परमार्थरूपसे प्राप्ति होना असम्भव है । पूर्णरूपसे रूपश्लेष माननेसे अनेक अणुओंका पिण्ड केवल अणुमात्र हो जायगा। एकदेशसे सम्बन्ध माननेपर वे एकदेश उसके आत्मभूत हैं या परभूत हैं ? बताओ! प्रथम पक्षमें दूसरे एकदेशसे रूपश्लेष न हुआ पृथग्भाव बनारहा परभूत माननेपर तो अनवस्था होवेगी । रूपश्लेषका स्पष्ट अर्थ करनेके लिये उक्त इन तीन अर्थोके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय जैनोंके पास नहीं है। हां, कल्पनासे गढ लिये गये रूपश्लेषका तो हम बौद्ध भी निषेध नहीं करते हैं। किन्तु वह कल्पित रूपश्लेष वास्तविक संबन्ध नहीं है । क्योंकि अपनी अपनी न्यारी प्रकृतियोंके अनुसार सर्वथा भिन्न हो रहे पदार्थ अपने अपने भावमें व्यवस्थित हो रहे हैं। उनका भला परस्परमें स्वरूप संश्लेष क्या हो सकता है ? कहीं जल भी कमलपत्रसे मिला है। अथवा अग्नि और पारा या परमाणुएं भी कभी मिलती हैं ? अर्थात् नहीं। अन्यथा यानी निरन्तरताको सम्बन्ध, कहोगे तो भाव होनेके कारण सान्तरता ( विरह पडना ) को बडी प्रसन्नतासे संबन्ध हो जानेका प्रसंग होगा । जो कि जैनोंको इष्ट नहीं, इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे हैं। उनके ग्रन्थोंमें भी वही कहा गया है कि रूपका एकमएक होकर श्लेष हो जाना ही सम्बन्धवादिओंके यहां सम्बन्ध .. माना गया है । वह सम्बन्धियोंके दो होनेपर भला कैसे होवेगा? तिस कारण प्रकृतिसे. ही भिन्न भिन्न पडे हुए पदार्थोका परमार्थरूपसे कोई सम्बंध ही नहीं है । गढन्त कैसी भी कर लो ! जैसे कि कोई हास्यशील मनुष्य किसी व्यक्तिसे कहे कि तुम्हारी चाचीकी बहिनकी भतीजीकी भौजाईकी दादीकी धेवतीसे मेरी सगाई होनेवाली थी। तिस कारण तुम मेरे साले लगते हो, यह साला जमाईपनका सम्बंध झूठा है । उसी प्रकार सबः सम्बन्ध झूठे हैं । यों बौद्धोंके कहनेपर अब आचार्य कहते हैं उसे सुनो ।