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तत्वार्थचिन्तामणिः
वास्तविकरूपसे सम्बन्ध मानना बौद्धोंको आवश्यक हो जायगा। पदार्थोको परतन्त्र नहीं माननेपर स्वतन्त्र माना जायगा तो नियत देश और नियतकाल आदिमें उनका उत्पन्न होना भला क्यों देखा जा रहा है ? अर्थात् स्वतन्त्रतासे चाहे जिस देश या कालमें पदार्थोकी उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है । आपके मन्तव्यानुसार स्वतन्त्र पदार्थको किसी देश या कालके पराधीन होनेकी तो आवश्यकता नहीं पडती है । सर्वत्र सर्वदा सर्व कार्य उत्पन्न हो जायगे । ऐसा होनेपर बौद्धोंके यहां भी " सर्व सर्वत्र विद्यते" यह सांख्यका मत घुस जायगा। विद्यतेके स्थानपर उत्पद्यते लगा देना चाहिये।
पारतन्त्र्यस्याभावाद्भावानां संबन्धाभावमभिदधानास्तेन संबन्धं व्याप्तं कचित्प्रतिपचंते न वा १ प्रतिपद्यन्ते चेत् कथं सर्वत्र सर्वदा सम्बन्धाभावमभिदधुर्विरोधात् । नो चेत् कथमन्यापकाभावादव्याप्याभावसिद्धेः । परोपगमात्तस्य तेन व्याप्तिसिद्धेरदोष इति चेन्न, तथा स्वप्रतिपत्तेरभावानुषंगात् । परोपगमाद्धि परः प्रतिपादयितुं शक्यः। .
परतन्त्रता न होनेके कारण पदार्थोका सम्बन्ध न होनेको कथन कर रहे बौद्ध क्या उस परन्त्रतासे सम्बन्धको व्याप्त हुआ यानी अविनाभव रखता हुआ किसी दृष्टान्तमें जान लेते हैं ? या नहीं ? भावार्थ- बह्निसे व्याप्त हुए धूमको महानसमें समझकर सरोवरमें अग्निके. अभावसे धूमका अभाव जान लिया जाता है। इसी प्रकार परतन्त्रतारूप व्यापकके साथ सम्बन्धरूप व्याप्य यदि अविनाभाव रखेगा, तब तो व्यापकके अभावसे व्याप्यका अभाव जान लिया जा सकता है। अन्यथा नहीं । प्रथमपक्षके अनुसार यदि यों कहोगे कि सम्बन्ध परतन्त्रताके साथ व्याप्तिको रखता है, तब तो यही सम्बन्ध सिद्ध हो गया। फिर आप बौद्धोंने सब देशोंमें और सर्व कालोंमें सम्बन्धके अभावको कैसे कह दिया था ? क्योंकि आपके ऊपर विरोधदोष आता है। प्रथम सम्बन्धको मानकर फिर सम्बन्धको न मानना पूर्वापर विरुद्ध है। हां, दूसरे पक्षके अनुसार यदि परतन्त्रतासे व्याप्त हुए संबन्ध हेतुको कहीं नहीं जानते हो तो अव्यापकके अभावसे अव्याप्यके अभावकी सिद्धि कैसे कर दी गयी है ? जहां मनुष्य नहीं हैं, वहां ब्राह्मण नहीं है, यह तो ठीक बन सकता है। किन्तु जहां सुवर्ण नहीं है, वहां ब्राह्मण नहीं है, यह सिद्धिका उपाय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मणपनका व्यापक सुवर्णपन नहीं है और ब्राह्मणपन भी सुवर्णत्वका व्याप्य नहीं है । अथवा परतन्त्रताके अभावस्वरूप हेतुकी सम्बन्धाभावस्वरूप साध्यके साथ व्याप्ति बनना कहीं निर्णीत है या नहीं ? दोनों पक्षोंमें बौद्धोंको सम्बन्ध मानना अनिवार्य है अनुमान वादिओंको व्याप्ति नामका सम्बन्ध मानना ही पड़ता है । यदि बौद्ध यों कहे कि दूसरे नैयायिक या जैनोंके स्वीकार करनेसे हम बौद्ध भी उस सम्बन्धकी उस परतन्त्रताके साथ व्याप्तिको सिद्ध कर लेते हैं । अतः कोई दोष नहीं है। आचार्य कहते हैं कि सो यह तो न कहना। क्योंकि तिस प्रकार दूसरोंके स्वीकार करनेसे बौद्धोंको स्वयं प्रतिपत्ति होनेके अभावका प्रसंग होगा । दूसरोंके स्वीकारसे तो दूसरा ही कहकर समझाया जा