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तत्वार्थलोकवार्तिके
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धर्माणां वस्तुनि ययाप्रमाणोपपन्नत्वात् । ततो यत्सकळधर्मरहितं तन्न वस्तु यथा पुरुषाद्यद्वैतं तथा च क्षणिकत्वलक्षणमिति जीवादिवस्तुनः स्वधर्मसिद्धिः।
अथवा वार्तिकका तीसरा अर्थ इस प्रकार है कि बौद्धजन यदि कल्पना किये गये धर्मों और वास्तविक सम्पूर्ण धर्मोका रहितपना वस्तुका स्वरूप मानेंगे, तब तो उसके स्वरूपकी अच्छे ढंगसे सिद्धि हो ही जाती है । निरात्मकपना भी बढिया स्वरूप है । अन्यथा यानी दोनों प्रकारके धर्मोसे रहितपनेको वस्तुका गांठका रूप न मानेंगे तो कल्पित और अकल्पित धर्मोसे युक्तपना उस वस्तुको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार यह तीसरा व्याख्यान समाप्त हुआ। कारिकामें सम्पूर्ण धर्म ऐसा सामान्यसे कहा है । अतः वास्तविक धर्मोके समान कल्पितधर्म भी पकडने चाहिये । दूसरी बात यह है कि इस तीसरे पक्षमें व्याघातदोष भी आशंका करने योग्य नहीं है। क्योंकि वस्तुमें प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका अतिक्रमण नहीं करके कल्पित अस्ति, नास्ति, आदि सप्तभङ्गीके विषयभूत धर्मोकी और वस्तुभूत वस्तुत्व, द्रव्यत्व, ज्ञान, सुख, रूप, रस, नीला, खट्टा आदि धर्मोकी सिद्धि होरही है। तिस कारण सिद्ध होता है कि जो सम्पूर्ण धर्मोसे रहित है, वह वस्तु नहीं है। जैसे कि ब्रह्माद्वैत, शद्वाद्वैत, आदि वस्तुभूत नहीं है, तिसी प्रकार बौद्धोंका माना हुआ क्षणिक स्खलक्षण भी सम्पूर्ण धर्मोसे रहित होता हुआ परमार्थभूत नहीं है । इस प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति द्वारा जीव, पुद्गल, आदि वस्तुओंके अपने अपने धर्मोकी सिद्धि हो जाती है । कल्पितधर्म भी वस्तुके अंग हैं, झूठ मूठ नहीं हैं।
सकलधर्मरहितेन धर्मेणानेकान्तस्तस्य वस्तुत्वादिति चेन्न, वस्त्वंशत्वेन तस्य प्ररूपितत्वात् वस्तुत्वासिद्धेः । अन्यथा वस्त्वनवस्थानानुषंगात् तदेवं सर्वथा वस्तुनि स्वरूपस्य निराकर्तुमशक्तेः सूक्तं निर्देश्यमानत्वमधिगम्यम् ।
कोई प्रतिवादी दोष दे रहा है कि जो सकल धर्मोसे रहित है वह वस्तु नहीं है। इस व्याप्तिमें एक धर्मसे व्यभिचारदोष होता है । देखिये, एक अस्तित्व नामका धर्म अन्य धर्मोसे रहित है। क्योंकि गुणमें दूसरे गुण नहीं रहते हैं । पर्यायमें अन्य पर्यायें नहीं रहती हैं । स्वभावमें फिर कोई दूसरे स्वभाव नहीं रहते हैं । गुण निर्गुण हैं । पर्याय निःपर्याय हैं, स्वभाव निस्स्वभाव हैं । यहां निषेध वाचक निर् अव्ययका अर्थ अन्योन्याभाव नहीं है, किन्तु अत्यन्ताभाव है । गुण गुणस्वरूप तो है, किन्तु गुणमें द्रव्यके समान दूसरे गुण नहीं पाये जाते हैं । चौकीमें चौकी नहीं है । रुपयेमें रुपया नहीं है । इसी प्रकार धर्ममें अन्य धर्म नहीं हैं । किन्तु वह धर्म वस्तुभूत माना गया है। साध्यके नहीं ठहरने और हेतुके ठहर जानेसे यह व्यभिचारदोष हुआ। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार व्यभिचार तो न देना। क्योंकि वह धर्म वस्तुका अंश है, वस्तु नहीं। पूर्व प्रकरणमें उसको वस्तुके अंशपनेसे निरूपण किया जा चुका है । अतः वस्तुत्वपना असिद्ध है, अतः वस्तुत्व हेतु नहीं रहा और सकलधर्म सहितपना साध्य भी नहीं रहा, कोई दोष नहीं है। अथवा व्यतिरेक मुखसे एकधर्ममें सकलधर्मरहितपना हेतु भी रह गया और अवस्तुपना साध्य भी रह गया, कोई