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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
करना योग्य है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे पूर्णरूप और एकदेश करके तत्त्वार्थीका अधिगम होना नहीं बन सकता । सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति, सम्भव, आदि उपाय तो अधिगतिके ज्ञापक हेतु नहीं हैं। यहांतक " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्रका संकलन कर दिया है।
- -=x=. छठे सूत्रका सारांश इस सूत्रके प्रकरणोंका संक्षेपसे विवरण यों है कि प्रथम ही नाम आदिकसे निक्षिप्त किये गये . पदार्थोंको पूर्णरूप और एकदेशसे अधिगम होना प्रमाण और नयोंसे बताया गया है । प्रमाण और नय ज्ञानोंको अपनी ज्ञप्ति तो अभ्यास तथा अनभ्यासदशामें स्वतः परतः हो जाती है । नयकी अपेक्षा प्रमाणको पूज्यपना है । नयज्ञान प्रमाणरूप नहीं है और अप्रमाण भी नहीं है। किन्तु प्रमाणभूत श्रुतज्ञानका एकदेश है । तैसे ही नयका विषय भी वस्तु है और अवस्तु न होकर वस्तुका एकदेश है । उसके बाद आचार्योने अवयवी पदार्थको सिद्ध किया है । बौद्धोंके तदुत्पत्ति, तदाकार
और तदध्यवसायसे विषय नियम माननेका खण्डन किया गया है । ज्ञान निरंश और क्षणिक नहीं है, किन्तु सांश और कालान्तरस्थायी है । सत्त्वकी क्षणिकत्वके साथ व्याप्ति नहीं है । बौद्धोंके मतका खण्डन हो चुकनेपर ब्रह्माद्वैतवादियोंके स्वतः सिद्ध हाथ लग गये तत्त्वका भी आचार्योने निरास कर दिया है । विशेषके विना सामान्य रहता नहीं है । केवल अंश या अंशीको नयज्ञान जानता है, किन्तु अंश और अंशीके समुदाय वस्तुको प्रमाण जानता है । वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंका कथन करनेवाला प्रमाणवाक्य है और वस्तुके विकल अंशका निर्देश करनेवाला नय-वाक्य है । प्रमाणके द्वारा वस्तुको जानकर उसके अंशको जाननेमें विवाद होनेपर नयज्ञान प्रवर्तता है । असंज्ञी जीवोंके नयज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है । श्रुतज्ञानके विषयमें ही नयकी प्रवृत्ति है । मति, अवंधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानको मूल मानकर उनके विषयमें नयोंकी प्रवृत्ति नहीं है । अपना और अर्थका निश्चयस्वरूप विकल्प करना अधिगम है। वह प्रमाण और नयों करके किया गया अभिन्न फल है। ज्ञानमें स्वयंकी ज्ञप्ति होना अच्छी युक्तियोंसे घटाया है, जिस बातको कि कोई एकान्तवादी नहीं मानता है। संवाद और असंवादसे प्रमाणपन और अप्रमाणपन व्यवस्थित हो रहा है । विपर्यय ज्ञानमें स्वके लिये योग्य अर्थका विशेषरूपसे निश्चय नहीं हैं । प्रमाण और नयरूप करणोंसे अधिगमरूप फल कथंचित् भिन्न है । यहां बौद्धोंकी मानी हुई प्रमाण फलव्यवस्थाका और तदाकारताका खण्डन कर ज्ञानावरणके विघटनसे ग्राह्य ग्राहकपन सिद्ध किया है । प्रमितिका साधकतम होनेसे भावइन्द्रियां प्रमाण हैं । अज्ञान निवृत्ति प्रमाणका अभिन्न फल है, तथा हान उपादन और उपेक्षा बुद्धियां प्रमाणसे भिन्न फल हैं। किन्तु एक आत्मामें होनी चाहिये । प्रमाण और फलके भेद और अभेद्का अच्छा विचार किया है।