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________________ तत्वार्थ लोकवार्त जायगा तो अवाच्य (अवक्तव्य ) इस प्रकारका कथन करना भी युक्त नहीं होता है ? । अर्थात् स्वामीजीके कथनसे प्रतीत होता है कि एक ही समय धर्मद्वयसे घिरी हुयी वस्तु एक अवक्तव्य शद्वसे कही जा सकती है। आचार्य कहते हैं कि ऐसे आक्षेप होनेपर हमारा यह कहना है कि देवागमकी उक्त कारिकाका व्याख्यान तुम कहते हो वैसा नहीं है, किन्तु इस प्रकार है कि एक समय हो रहे धर्मोसे आक्रान्तपने करके जैसे वस्तु अवाच्य है, उसी प्रकार सत्त्व, असत्त्व, आदिमेंसे एक एक धर्मसे आरूढपने करके भी वस्तुको यदि अवाच्य माना जायगा तो वाच्यत्वाभाव नामके एक धर्म करके घिरी हुयी वस्तुका अवाच्यपद करके कथन करना नहीं युक्त हो सकता है । भावार्थ- पूर्ण वस्तुको अवक्तव्यशद्वसे वाच्य नहीं माना जाता है, किन्तु वस्तुके वाच्यत्वाभाव नामक धर्मको कहने के लिये अवक्तव्यशद्व है । यदि सर्वथा ही वस्तुके अवाच्यपनका एकान्त माना जायगा तो उस एक वाच्यत्वाभाव धर्मका भी अवाच्यशद्वसे कथन करना नहीं युक्त हो सकेगा । येन रूपेणावाच्यं तेनैव वाच्यमवाच्यशद्धेन वस्त्विति व्याचक्षाणो वस्तु येनात्मना सत् तेनैवासदिति विरोधान्नोभयैकात्म्यं वस्तुन इति कथं व्यवस्थापयेत् ? सर्वत्र स्याद्वादन्यायविद्वेषितापत्तेः । ततो वस्तुनि मुख्यवृत्त्या समानबलयोः सदसत्त्वयोः परस्पराभिधानव्याघातेन व्याघाते सतीष्टविपरीतनिर्गुणत्वापत्तेः । स्वामीजीकी कारिकाके उत्तरार्धका यदि कोई इस प्रकार व्याख्यान कर रहा होय कि जिस स्वरूपसे वस्तु अवाच्य है, उस ही स्वरूप करके अवाच्यशद्वके द्वारा वाच्य है, ऐसा व्याख्यान करनेपर तो जिस स्वरूपसे वस्तु सत् है, उसी स्वरूपसे असत् है, यह भी कहा जा सकता है, तो फिर विरोध होनेके कारण वस्तुके दोनों धर्मोका एकात्मपना नहीं होता है । यह कारिकाका प्रथम पाद कैसे व्यवस्थित हो सकेगा ? कारिकाके ऐसे अंट संट व्याख्यान करनेसे तो सभी स्थलोंपर स्याद्वाद सिद्धान्त से विशेष द्वेष रखनेवालेपनका प्रसंग होता है, जो कि कारिकाके द्वितीय पादमें कहा है । तिस कारण वस्तुमें मुख्य प्रवृत्तिसे आरोपे गये समानबलवाले सत्त्व और असत्त्व धर्मोका परस्पर में कथन करनेका व्याघात हो जानेके कारण जब दोनोंका विनाश हो जायगा, ऐसा होने पर तो इष्टसिद्धान्त विपरीत हो चुकी वस्तुको गुण रहित हो जानेकी आपत्ति हो जायगी । अर्थात् सुन्द, उपसुन्द, न्यायसे तुल्यबलवाले दोनों गुणों का नाश हो जायगा तो वस्तु निर्गुण हो जायगी। जो कि सबको अपने अपने इष्ट सिद्धान्त से विपरीत पडती है । ४८२ विवक्षितोभयगुणेनाभिधानात् अवक्तव्योऽर्थ इत्ययमपि सकलादेश: परस्परावधारितविविक्तरूपैकात्मकाभ्यां गुणाभ्यां गुणिविशेषणत्वेन युगपदुपक्षिप्ताभ्यामविवक्षितांशभेदस्य वस्तुनः समस्तैकेन गुणरूपेणाभेदवृत्या भेदोपचारेण वाभिधातुं प्रक्रान्तत्वात् । स चावक्तव्यशद्वेनान्यैथ षड्भिर्वचनैः पर्यायान्तरविवक्षया च वक्तव्यत्वात् स्यादवक्तव्य इति निर्णीतमेतत् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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