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तस्वार्थ लोक वार्तिके
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पदोंकी भी क्रमसे
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स्मरण होकर दो अर्थोका ज्ञान होता है । दही और गुडके मिल जानेपर स्वादकी खट्टे और मीठेसे अतिरिक्त तीसरी अवस्था हो जाती है । वैसी दो पदोंको मिलकर बने हुए सांकेतिक पदकी खिचडी अवस्था नहीं होती है । प्रत्युत रोदस् शद्वसे आकाश और पृथ्वी पदोंका स्मरणकर आकाश और पृथ्वीरूप अर्थ जानने में परम्परा हो जाती है । इस कथन करके “ तौ सत् इस व्याकरण सूत्र के अनुसार शतृ और शान इन दो प्रत्ययों में संकेत किये गये सत् शब्दके समान या क्त, क्तवतु दो प्रत्ययोंके लिये इंगित कर लिये निष्ठा शद्वके सदृश कोई द्वन्द्व समासवृत्तिसे बनाया गया पद उन अस्तित्व, नास्तित्वका एक शब्द द्वारा कथन कर देवेगा, यह खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात् अपने घर के संकेतसे गढ लिया गया सत् शब्द भी क्रमसे ही शतृ और शानको कह रहा है । द्वन्द्व समास कर बनाये गये सदसत्त्वे या अस्ति नास्तित्व इत्यादि ही दो धर्मोको समझाने में सामर्थ्य है । युगपत् नहीं । तथा तिस ही कारण कर्मधारय बहुब्रीहि, आदि समासवृत्तिको प्राप्त हुए पद भी उन दोनों धर्मोका एक साथ कथन नहीं कर सकते हैं । क्योंकि प्रधानरूप करके दो धर्मोंके समझाने में उस पदका सामर्थ्य नहीं है । अतः कोई भी एक पद युगपत् दोनों अर्थोका वाचक नहीं है । उन दोनों धर्मोका वाचक कोई वाक्य सम्भव होवे, यह भी इस कथनसे खण्डित कर दिया गया समझ लेना चाहिये। क्योंकि एक पदके समान अनेक पदोंका समुदाय वाक्य भी क्रमसे ही दो अर्थोका निरूपण कर सकेगा । कितनी भी जल्दी दौडनेवाली गाडी या विमान हो, क्रमसे ही अनेक ग्राम और देशोंका उल्लंघन कर सकेगा। एक समय में चौदह राजूतक जानेवाला परमाणु भी माघवी, रत्नप्रभा, ब्रह्मस्वर्ग, सर्वार्थसिद्धि आदिका क्रमसे ही प्रतिक्रमण करेगा । तभी तो एक समयमें असंख्याते अविभागप्रतिच्छेद माने गये हैं । कण्ठ, तालु आदि स्थान तथा बहिरंग अंतरंग प्रयत्नोंकर बनाये गये वर्ण या पदके उच्चारणमें तो वैसे ही अनेक समय लग जाते हैं ।
सकलवाचकरहितत्वादवक्तव्यं वस्तु युगपत्सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावार्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते तच्च न सर्वथैवावक्तव्यमेवा वक्तव्यशद्धेनास्य वक्तव्यत्वादित्येके । ते च पृष्टव्याः, किमभिधेयमनक्तव्यशद्वस्येति । युगपत्प्रधानभूत सदसत्त्वादिधर्मद्वयाक्रान्तं वस्त्विति चेत्, कथं तस्य सकलवाचकरहितत्वम् ? अवक्तव्यपदस्यैव तद्वाचकस्य सद्भावात् । यथाऽवक्तव्यमिति पदं सांकेतिकं तस्य वाचकं तथान्यदपि किं न भवेत् । तस्य क्रमेणैव तत्मत्यायकत्वादिति चेत्, तत एवावक्तव्यमितिपदस्य तद्वाचकत्वं माभूत् । ततोऽपि हि सकृत्प्रघानभूतसदसत्वादिधर्माक्रान्तं वस्तु क्रमेणैव प्रतीयते सांकेतिकपदान्तरादिव विशेषाभावात् वक्तव्यत्वाभावस्यैवैकस्य धर्मस्यावक्तव्यपदेन प्रत्यायनाच्च न तथाविधवस्तुप्रत्यायनं सुघटं येनावक्तव्यपदेन तद्व्यक्तमिति युज्यते ।