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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १५५ धर्मोकी अभेदवृत्ति न हो सकी ६ । संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवालेके भेदसे भिन्न ही माना जाता है। यदि सम्बन्धीके भेद होते हुए उस संसर्गका अभेद माना जायगा तो संसर्गियोंके भेद होनेका विरोध है। भावार्थ-सम्बन्धी धर्म यदि न्यारे न्यारे हैं तो उनका संसर्ग एक कैसे भी नहीं हो सकता है। एक गाडीमें दो बैल एक ही स्थानपर एक ही जोडसे नहीं लग सकते । पगडी, कुर्ता, धोती आदिसे स्पृष्ट हो रहे देवदत्तके अवयव न्यारे न्यारे संसर्गवाले हैं। अतः संसर्गसे भी अमेदवृत्ति न हो सकी। दान्तोंका मिश्री, सुपारी, पान, हलुआ, जीभके साथ भिन्न भिन्न प्रकारका संसर्ग है ७ । प्रत्येक विषयकी अपेक्षासे वाचक शब्द नाना होते हैं । यदि सम्पूर्ण गुणोंको एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायगा, तब तो सम्पूर्ण अर्थीको भी एक शब्द द्वारा निरूपण किये जानेका प्रसंग होगा। ऐसी दशामें भिन्न भिन्न पदार्थोके लिये न्यारे न्यारे शद्बोंका बोलना व्यर्थ पडेगा । अतः शब्दके द्वारा अभेदवृत्ति नहीं मानी जा सकती है । जब कि वास्तविकरूपसे अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मोकी एक वस्तुमें इस प्रकार अभेदवृत्तिका होना असम्भव है तो अब काल, आत्मरूप, आदि करके भिन्न भिन्न स्वरूप हो रहे धर्मोका अभेद रूपसे उपचार किया जाता है । अर्थात् पर्यायार्थिक नयसे नाना पर्यायोंमें भेद है । क्योंकि एक पर्याय दूसरे पर्यायस्वरूप नहीं है। फिर भी एक वस्तु या द्रव्यकी अनन्तपर्यायोंमें अभेदका व्यवहार कर लिया जाता है । देवदत्तकी पर्यायोंका जिनदत्तकी पर्यायोंके साथ तो उपचारसे भी अभेद नहीं है, क्योंकि वे सर्वथा भिन्न हैं । सत्त्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, जीवत्व आदिकी अपेक्षासे देवदत्त जिनदत्तोंमें हो रहा अभेद भी सादृश्यकी भित्तिपर पोच लटक रहा है । एकत्वकी सांकलसे पुष्ट बंधा हुआ नहीं है विचारनेपर देवदत्त और जिनदत्तके द्रव्यत्व, जीवत्व, आदि सदृश परिणाम भी न्यारे न्यारे जचेंगे । तिस कारण इन अभेदवृत्ति और अभेद उपचारसे एक शब्द करके ग्रहण किये गये अनन्तधर्मात्मक एक जीव आदि वस्तुका कथन किया गया है। उन अनेक धर्मोका द्योतक स्यात्कार निपात भले प्रकार व्यवस्थित हो रहा है। भावार्थ-विकलादेश द्वारा क्रमसे अनेक धर्मोका निरूपण किया जाय अथवा सकलादेश द्वारा युगपत् सम्पूर्ण धर्मोका निरूपण किया जाय । किन्तु अनेकान्तका द्योतक होनेसे स्यात् निपातका प्रयोग करना आवश्यक है । तभी सर्व प्रकारसे सत्त्व आदिकी प्राप्तिका विच्छेद हो सकेगा । अन्य कोई उपाय नहीं है। स्याच्छदादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने । शद्वांतरप्रयोगोऽत्र विशेषप्रतिपत्तये ॥ ५५॥ , यद्यपि अकेले स्यात् शबसे भी सामान्यरूपसे अनेक धर्मोका थोतन होकर ज्ञान हो जाता है, फिर भी यहां विशेषरूपसे धर्मोकी प्रतीति होनेके लिये दूसरे अस्ति, नास्ति, आदि शद्रोंका प्रयोग करना आवश्यक है। भावार्थ-ब्राह्मणकौडिन्यन्यायसे विशेष धर्मके वाचक शब्द्वका प्रयोग करना अनिवार्य है। किसी शबसे अनेकान्त कहा जाय, तभी तो स्यात् निपात उसका योतन कर सकेगा।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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