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तत्वार्थचिन्तामणिः
किन्तु वह तो अन्य ही है । तिसके समान भिन्न पडी हुयी अन्य व्यावृत्ति भी उससे अन्य हो जायगी । अन्यकी निवृत्तिरूप न हो सकेगी। यदि स्वलक्षणकी अन्य व्यावृत्तिको भी उस न्यारी व्यावृत्तिसे व्यावृत्त मानोगे । तब तो सजातीय और विजातीय स्वलक्षणोंको एक हो जानेका प्रसंग होगा। गौ और महिषके मध्यमें पड़ी हुई व्यावृत्तिको यदि पृथक् कर दिया जाय तो बैल और भैंसा दोनों एक हो जायेंगे । व्यावृत्ति ही तो दोनोंमें समवेत हो रही दोनोंको न्यारा कर रही थी। अब आपने दूध से मक्खीके समान उसको दूर फेंक दिया तो वह पृथग्भाव नहीं करा सकती है। दूसरी बात यह है कि अन्य व्यावृत्ति तुच्छ पदार्थ है । वस्तुभूत नहीं है । अतः उसका स्वलक्षणके स्वकीयपनसे या भिन्नपनसे कथन ही नहीं किया जा सकता है, ऐसी दशामें स्वभाव रहित निरुपाख्य हो जानेके कारण यह इससे व्यावृत्त है । इस प्रकारके ज्ञानको पैदा करनेमें वह समर्थ नहीं है । अतः शद्बका वाच्यार्थ अय व्यावृत्ति नहीं है । तथा उस तुच्छ व्यावृत्तिसे विशिष्ट ( सहित ) हो रहा अर्थ भी शद्वका वाच्य अर्य नहीं है। क्योंकि वह निःस्वभाव अन्य व्यावृत्ति तो अर्थका विशेषण नहीं हो सकती है । । यदि निःस्वभाव व्यावृत्तिको वस्तुभूत अर्थका विशेषण मान लिया जायगा तो उसका विशेष्य अर्थ भी निःस्वभाव हो जायगा । अपने स्वभावसे विशेष्यको जो स्वके अनुरूप रंग देता है उसको विशेषण कहते हैं । और विशेषणके अनुरूप जो रंगजाता है, वह विशेष्य है। स्वभावरहित व्यावृत्ति यदि विशेषण हो जायगी तो विशेष्यको भी स्वभावरहित अवस्तु बना देगी। अन्यथा नील विशेषणसे युक्त इन्दीवर या कम्बल आदिको नीलेपनका विरोध हो जायगा। हां! वस्तुभूत स्वलक्षण तो उससे अन्य सजातीय और विजातीय पदार्थोसे स्वयं व्यावृत्त हो रहा है। ऐसे वस्तुभूत स्वलक्षणके प्रत्यक्ष दर्शनके पीछे होनेवाले निषेधक विकल्पक ज्ञानसे दिखलायी गयी उस अन्य व्यावृत्तिकी प्रतीति हो जाती है । अतः विधि और उसके विशेष भेद प्रभेदोंके विकल्प ज्ञान द्वारा शबके दिखला गये वाच्यार्थकी विधि होनेकी सामर्थ्यसे वह अन्यव्यावृत्ति कह दी जाती है। कण्ठोक्त रूपसे व्यावृत्तिको कहनेवाला या समझानेवाला कोई शब्द नहीं हैं। इस प्रकार किन्हीं बौद्धोंका मताग्रह है। वह एकान्त आग्रह भी पापोंके बाहुल्यसे भरा हुआ है । क्योंकि स्वार्थकी विधिके सामNसे अर्थापत्ति द्वारा जैसे आप अन्यव्यावृत्तिका ज्ञान कर लेते हैं, वैसे ही कहीं अन्यव्यावृत्तिकी सामNसे भी स्वार्थकी विधिका ज्ञान होना प्रसिद्ध हो रहा है। देखिये ! स्वयं आप बौद्धोंने शद्वका अनित्यपन साधते हुए सत्त्व कृतकत्व आदि हेतुओंके व्यतिरेकका पहिले ज्ञान करके पीछे उसकी सामर्थ्यसे अन्वयका ज्ञान होना स्वीकार किया है । अर्थात् नित्य या कालान्तर स्थायी पदार्थमें सत्त्व नहीं रहता है । इस व्यतिरेकसे जहां जहां सत्त्व है, वहां वहां अनित्यत्व है। इस अन्वयको दृढ रूपसे जाना है। वैसा कथन करनेपर ही दूसरे प्रकारसे पुनरुक्तपना नहीं घटता है। अर्थात् विपक्ष व्यावृत्तिरूप व्यतिरेकसे सपक्ष वृत्तिरूप अन्वयका ज्ञान माननेपर ही पुनरुत दोष नहीं आता है।