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तत्वार्यचिन्तामणिः
तुल्यबलवाले विरोधी हैं । एक स्थानमें भिड जानेपर दोनों नष्ट हो जायेंगे । इस प्रकार प्रकरण प्राप्त सात धर्मोके अविनाभावीपन साध्यको सिद्ध करनेवाले अनुमानमें दिया गया दृष्टान्त भला कैसे बनेगा ? अत्र आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानपर के तीन रूपपन आदिका विरोध हो जायगा । पक्षे सत्त्व, और विपक्षे नास्तिको यदि एक मान लिया जायगा तो हेतुके दो या एक ही रूप हो सकेंगे । किन्तु आप बौद्धोंने हेतुके पक्षसत्व, सपक्षसत्त्व, और विपक्षे नास्तित्व, ये तीन स्वरूप माने हैं। तथा चार्वाक या अद्वैतवादियोंको अपने इष्टतत्व के विधान करने में एवकारके द्वारा अवधारण करना व्यर्थ पडेगा । पृथ्वी आदिक चार तत्त्व हैं। इसका अर्थ अन्य आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक, आदि नहीं हैं यह है तब तो चार ही तत्त्व हैं इसमें ही लगाना व्यर्थ है ।
पक्षसपक्षयोरस्तित्वमन्यत्साधनस्य विपक्षे नास्तित्वं ब्रुवाणः स्वष्टतत्त्वस्य च कथमेकस्य विधिप्रतिषेधयोर्विप्रतिषेधान्निदर्शनाभावं विभावयेत् ।
पक्ष और सपक्ष में हेतुका अस्तिपन भिन्न है और विपक्ष में नास्तिपन न्यारा है । ऐसा कहनेवाला अपने अभीष्ट एक तत्त्वकी विधि और निषेधका तुल्यबल विरोध हो जाने से दृष्टान्तका अभाव भला कैसे विचार सकेगा ? अर्थात् हेतुके पक्ष, विपक्षकी, अपेक्षासे अस्तित्व, नास्तित्वमें और विधिप्रतिषेधों में तुल्यबलवाला विरोध नहीं है । इष्टानिष्ट तत्त्वोंके विधि, निषेध, का अविनाभाव सिद्ध हो जाता है । कथमपि दृष्टान्त सिद्ध होना चाहिये ।
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कचिदस्तित्व सिद्धिसामर्थ्यात्तस्यान्यत्रनास्तित्वस्य सिद्धेर्न रूपान्तरत्वमिति चेत् व्याहतमेतत् सिद्धौ सामर्थ्यसिद्धं च न रूपान्तरं चेति कथमवधेयं कस्यचित् कचिन्नास्तित्वसामर्थ्याच्चास्तित्वस्य सिद्धेस्ततो रूपान्तरत्वाभावप्रसंगात् । सोयं भावाभावयोरेकत्वमा - चक्षाणः सर्वथा न कचित् प्रवर्तेत नापि कुतश्चिन्निवर्तेत तनिवृत्तिविषयस्य भावस्याभावपरिहारेणासम्भवादभावस्य च भावपरिहारेणेति । वस्तुतोऽस्तित्वनास्तित्वयोः कचिदूपान्तरत्वमेष्टव्यम् । तथा चास्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाविनाभावि धर्मरूपं च यत्र हेतौ स्वष्टतत्त्वे वा सिद्धं तदेव निदर्शनमिति न तदभावाशंका ।
यदि बौद्ध यों कहें कि कहीं अस्तित्वकी सिद्धिके सामर्थ्य से उसका दूसरे स्थलोंपर नास्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है, अतः अस्तित्व और नास्तित्व ये दो भिन्नस्वरूप नहीं हैं एक ही हैं । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहनेपर तो यह व्याघातदोष है कि एककी सिद्धि हो चुकनेपर अन्यतरको सामर्थ्य से सिद्ध कहना और फिर उनको भिन्नस्वरूप न मानना, भला धूमकी सामर्थ्यसं अनिकी सिद्ध होनेपर क्या धूम और अग्नि एक हो जायेंगे। जिस जीवके आंख अवश्य हैं यह सामर्थ्यसे ही जान लिया जाता है । एतावता आंखें
कान हैं उस जीवके और कान दोनों अभिन्न
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