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तत्वार्थचिन्तामाणिः
येनैवार्थो मया ज्ञातस्तेनैव त्यज्यतेऽधुना । गृह्येतोपेक्ष्यते चेति तदैक्यं केन नेष्यते ॥ ४४ ॥ भेदेकान्ते पुनर्न स्यात् प्रमाणफलता गतिः। .
सन्तानान्तरवत्स्वेष्टेप्येकत्रात्मनि संविदोः ॥ ४५॥
जिस ही मुझने अर्थको जाना था, उसी मेरे द्वारा वह हेय अर्थ अब छोड दिया जारहा है और मैंने जो अर्थ जाना था वह उपादेय अर्थ मुझसे ग्रहण किया जाता है । अथवा जो अप्रयोजनीय अर्थ मैंने जाना था, वही मुझसे उपेक्षणीय होरहा है । इस प्रकार उसी समय प्रमाण और फलका एकपना किसके द्वारा इष्ट नहीं किया गया है ? अर्थात् प्रमाणके हानबुद्धि आदि फल भी प्रमाणके समसमयवर्ती होकर अव्यवहित अभिन्न फल प्रतीत हो रहे हैं, यह बात सबको माननी पडती है। यदि यहां एकान्तरूपसे सर्वथा भेद माना जायगा तब तो फिर प्रमाणपने और फलपनेका निर्णय न हो सकेगा । जैसे कि देवदत्तके घटज्ञानका फल अन्य सन्तान माने गये इन्द्रदत्तकी पटज्ञप्ति या हान आदि ज्ञान नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार अपने अभीष्ट विवक्षित एक आत्मामें भी उत्पन्न हुये सर्वथा भिन्न दो ज्ञानोंमें प्रमाणपन और फलपना निर्णीत नहीं हो सकता है।
न धेकेन प्रमितेऽर्थे परस्य हानादिवेदनं तत्पमाणफलं युक्तमतिप्रसंगात् । यस्य यत्र प्रमाणं ज्ञानं तस्यैव तत्र फलज्ञानमित्युपगमे सिद्धं । प्रमाणफलयोरेकममात्रात्मकयोरेकत्वम् । न चैवं तयोर्भेदप्रतिभासो विरुध्यते, विशेषापेक्षया तस्य व्यवस्थानात् ।
एक पुरुषके द्वारा अर्थकी प्रमिति कर चुकनेपर दूसरे पुरुषके हुआ हान (त्याग) आदिकका ज्ञान उस पूर्व पुरुषके प्रमाणका फल है यह युक्त नहीं है । क्योंकि अतिप्रसंगदोष हो जायगा । यानी चाहे जिसके ज्ञानसे किसी भी तटस्थ पुरुषको ज्ञप्ति होना बन बैठेगा, तब तो सर्वज्ञके ज्ञानसे अल्पज्ञोंको भी सम्पूर्ण पदार्थोकी प्रत्यक्षज्ञप्ति हो जायगी। स्नेही पंडितोंके पुत्र मूर्ख नहीं रह सकेंगे, उनको कौन रोक सकेगा ? । यदि वैशेषिक यों कहें कि जिस आत्माको जिस ज्ञेयमें प्रमाणज्ञान हुआ है उस ही आत्माको तिस ज्ञेयमें हुआ हान आदिका ज्ञान तो फल ज्ञान माना जायगा । अन्यका
अन्यमें नहीं, इस प्रकार नियमका संकोच स्वीकार करनेपर तो एक प्रमातास्वरूप प्रमाण और फलको एकपना ( अभेद ) सिद्ध होगया। यही तो हम स्याद्वादी कह रहे हैं । इस प्रकार कथञ्चित् अभेद हो जानेपर उन प्रमाण फलोंका कथञ्चित् भिन्नरूपसे दीखना विरुद्ध पड जायगा । सो नहीं समझना। कारण कि विशेषकी अपेक्षासे उनमें भेद प्रतिभासकी व्यवस्था हो रही है। एक ज्ञानमें प्रमाणपन और प्रमिति जैसे अविभक्त हो रहे हैं, उसी प्रकार किसी ज्ञानमें हानोपादान बुद्धियां भी संकरपनेसे तदात्मक हो रही हैं ऐसा अनुभवमें आ रहा है । बढिया क्षयोपशम होनेपर प्रमाणकालमें ही कचित् प्रमाणसे अभिन्न हान, उपादान, बुद्धियां हो जाती हैं । केवल ज्ञानी महाराजके