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तत्त्वार्थेचिन्तामणिः
फिर शंकाकारका कहना है कि श्रद्धानको पुद्गलका बना हुआ कर्मरूप भी माना जावे तो भी वे निर्देश, अल्पपना, बहुपना आदि बन सकते हैं, कोई विरोध नहीं है । ग्रन्थकार समझाते हैं. कि ऐसा कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि कर्मको मोक्षके कारणपनेका अभाव है । आत्माके निज स्वाभाविक परिणामको ही उस स्वात्मोपलब्धिरूप मोक्षकारणपना सिद्ध है । यदि कोई यक पौगलिक कर्मको भी मोक्षका कारणपना होनेपें कोई विरोध नहीं दीखता है, क्योंकि मोक्ष स्व यानी आत्मा और पर यानी दूसरे द्रव्योंके निमित्तसे होनेवाला कार्य है । आचार्य उत्तर देते हैं कि इस प्रकार नहीं कह सकते हो। क्योंकि मोक्षरूपी कार्यमें आत्मा उपादान कारण है और अन्य निमित्त कारण हैं । यहां पर शद्वसे काल, आकाश, तीर्थस्थान आदि निमित्त कारणोंका ही विद्यमान होना माना गया है । इससे भिन्न होरहे कर्मको मोक्षमें निमित्तपना नहीं है । यथार्थमें पूंछो तो ज्ञानावरण
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आदि कर्म प्रत्युत संसारके कारण हैं । कर्मोंका नाश करनेके लिये ही तो मुमुक्षुका प्रयत्न हैं । जिस पदार्थका नाश करना है, वह उस कार्यमें क्या सहायता कर सकता है ? घटके ध्वंस करनेमें घटको कारणता इस प्रकार भी इष्ट नहीं है कि घट नहीं होता तो ध्वंस किसका किया जाता ? क्योंकि कार्यकालमें एक क्षण पहिलेसे रहते हुए कार्योत्पत्ति में सहायता करनेवाले अर्थको निमित्तकारण कहते हैं । घटके ध्वंसमें मुद्गर पाषाण आदिका अभिघात कारण है ।
ननु च यथा मोक्षो जीवकर्मणोः परिणामस्तस्य द्विष्ठत्वात् तथा मोक्षकारणश्रद्धानमपि तदुभयविवर्तरूपं भवत्विति चेन्न, मोक्षावस्थायां तदभावप्रसंगात्, स्वपरिणामिनोऽ सच्चे परिणामस्याघटनात्, पुरुषपरिणामादेव च कर्मसामर्थ्यहननात्तस्य कर्मरूपत्वायोगात् । ततो न कर्मरूपं सम्यग्दर्शनं निःश्रेयस प्रधानकारणत्वाद हेयत्वात्सम्यग्ज्ञानवत् । निःश्रेयसस्य प्रधानं कारणं सम्यग्दर्शनमसाधारणस्वधर्मत्वात्तद्वत् । असाधारणः स्वधर्मः सद्दर्शनं मुक्तियोग्यस्य ततोऽन्यस्यासम्भवात्तद्वत् । इति जीवरूपे श्रद्धाने सद्दर्शनस्य लक्षणे न कश्चिदोषीसम्भवोऽतिव्याप्तिरव्याप्तिर्वा समीक्ष्यते ।
यहां और भी आक्षेपसहित शंका है कि जैसे मोक्षरूपी कार्य जीव और कर्म इन दोनों में रहनेवाली पर्याय है, क्यों कि वह मोक्ष यानी दोनोंका छूट जाना दोमें रहनेवाला धर्म है । मुक्त अवस्थामें आत्मा स्वतंत्र हो जाता है । कर्म भी आत्मासे अपना पिण्ड छुडाकर स्वतंत्र हो 1 जाता है । किंतु वह स्कन्ध है । अतः अशुद्ध है तथा जड है, इसलिए प्रशंसा नहीं पाता है । वास्तवमें मोक्षपर्याय दोनोंमें रहती है । जैसे कि संयोग, विभाग, द्वित्व त्रित्व संख्या ये दो आदिमें रहनेवाले धर्म हैं, इस ही प्रकार मोक्षका कारण श्रद्धान गुण भी उन जीव और पुद्गल दोनोंका पर्यायस्वरूप हो जाना चाहिए । कार्यके करते हैं । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है। बन्धके समान यदि जीव और पुद्गल दोनोंका परिणाम माना जावेगा तो मोक्षदशामें उस श्रद्धान
अनुरूप ही कारण हुआ
क्योंकि श्रद्धानगुणको भी