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________________ तत्त्वार्थाचिन्तामणिः दोषसे भयभीत होकर यदि आप बौद्ध उन स्वसंवेदन के प्राह्यग्राहक स्वरूपोंको स्वसंविदित नहीं मानोगे तो वे स्वसंवेदन प्रत्यक्षके स्वरूप भला कैसे कहे जा सकते हैं ! इस प्रकार आप बौद्धों का यह उक्त निरूपण करना जो कुछ भी कह देना मात्र है । इसमें सार कुछ नहीं है । 66 मुखमस्तीति वक्तव्यम् ” मुख है, इस कारण कुछ कहते रहना चाहिये । सैकडों श्रोताओंमेंसे सम्भव है कोई हमारे निःसार तत्त्वका ही समर्थन समझने लग जाय, किन्तु यह वञ्चना प्रशंसा मार्ग नहीं है । ३९३ न चायं दोषः समानः संवित्ति स्वार्थेन घटयति सति प्रमाणे स्वावरणक्षयात् क्षयोपशामाद्वा तथा स्वभावत्वात् प्रमाणस्य । तन्न सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमेकान्ततोनर्थान्तरं तत इति निश्चितम् । एक बात यह भी है कि यह उक्त दोष आप बौद्धोंके समान हम स्याद्वादियोंके ऊपर लागू नहीं होता है, जबकि प्रमाणज्ञान संवित्तिको अपने विषयके साथ स्वावरणोंके क्षय अथवा क्षयपशमसे संयोजन करा रहा है। ऐसा होनेपर विषय और विषयीका स्वावरणक्षयोपशमस्वरूप योग्यता ही सखी बनकर सम्बन्ध करा देती है । हम क्या करें ? प्रमाणका तिस ही प्रकार स्वभाव है । स्वभाव में तर्क नहीं चलती है । तिस कारण इस विषयकी तदाकारता ही प्रमाण है और एकान्तरूपकरके प्रमाणसे सर्वथा अभिन्न उसका फल है । यह बौद्ध सिद्धान्त उससे सिद्ध नहीं होता है। इस बातका हम स्पष्टरूपसे निर्णय कर चुके हैं । भिन्न एवेति चायुक्तं स्वयमज्ञानतातितः । प्रमाणस्य घटस्येव परत्वात् स्वार्थनिश्चयात् ॥ ३९ ॥ तथा स्व और अर्थका अधिगमरूप फलसे प्रमाणको यदि भिन्न ही कहा जाय, यह भी अयुक्त है। क्योंकि तब तो स्वार्थ निश्चयसे सर्वथा भिन्न होनेके कारण प्रमाणको घटके समान जडपकी प्राप्ति हो जायगी । अर्थात् जो ज्ञानस्वरूप निश्चयसे सभी प्रकार भिन्न है, वह जड है । यत्स्वार्थाधिगमादत्यन्तं भिन्नं तदज्ञानमेव यथा घटादि । तथा च कस्यचित्प्रमाणं न चाज्ञानस्य प्रणता युक्ता । व्याप्तिपूर्वक अनुमान बनाते हैं कि जो अपने और अर्थोके अधिगमसे अत्यन्त भिन्न है, * ( हेतु ) वह अवश्य अज्ञान है ( साध्य जैसे कि घडा, कपडा, आदि ( दृष्टान्त ) तिस प्रकार किसी एक नैयायिकके द्वारा माना गया प्रमाण है ( उपनय ) । तिस कारण वह प्रमाण जड हो जायगा ( निगमन) और अज्ञान पदार्थको तो प्रमाणपना युक्त नहीं है । अज्ञानकी निवृत्तिरूप प्रमिति चेतन ज्ञानके द्वारा ही साध्य है । अन्धकारका नाश प्रकाशसे ही हो सकता है । अन्ध कारके सजातीयसे नहीं । 1:4 GO
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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