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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १७३ भवको विकल्पज्ञानकी जनकता आ जाती है ऐसा माननेपर तो यह वही परस्पराश्रयदोष हुआ । कारकपक्षमें हुआ अन्योन्याश्रय विशेष खटकनेवाला दोष है । यदि स्पष्टपना उस अनुभवकी दक्षता कही जावेगी तत्र तो वह स्पष्टपना क्षणिकत्व आदि में भी समानरूपसे विद्यमान है । भावार्थबौद्ध मतके अनुसार नील, पीत, आदि स्वलक्षणोंका निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा जैसे स्पष्ट अनुभव हुआ है, वैसा ही पदार्थोंके क्षणिकपनेका या हिंसक जीव की नरकप्रापणशक्ति आदिका भी स्पष्ट ज्ञान हो चुका है, अन्यथा वे क्षणिकत्व आदिक वास्तविक नहीं हो सकते थे । वस्तुभूत पदार्थोंका प्रत्यक्ष होना ही बौद्धोंने माना है । अनुमान प्रमाण तो जान लिये गये विषयमें भ्रमवश उत्पन्न हुए समारोपको दूर करनेवाला बौद्धोंने स्वीकार किया है । मकरणार्थित्वापेक्षो नीलादावनुभवस्तद्वासनायाः प्रबोधक इत्यप्यसारम्, क्षणक्षयादावपि तस्याविशेषात् । सत्यपि क्षणक्षयादौ प्रकरणेर्थित्वे च तद्विकल्पवासनाप्रबोधकाभावाच्च नीलादौ न तदपेक्षं दर्शनं तत् प्रबोधकं युक्तं, व्यभिचारात् । अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव और अर्थीपन ये चार उद्बोधक कारण माने गये हैं । नील, पति, आदिके समान क्षणिकपने आदिमें भी विकल्पज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता है ? बौद्धोंकी ओरसे इसके उत्तर दिये गये अभ्यास और बुद्धिकी अतीव पटुताका विचार होकर खण्डन कर दिया गया। है । अब प्रकरण और अर्थीपनका विचार करते हैं । बौद्ध कहते हैं कि नील आदिकोंके विकल्पज्ञान होनेका प्रकरण है । तथा अभिलाषुकता है । अतः प्रकरण और अभिलाषा या जिज्ञासाका विषय हो जानापनकी अपेक्षा रखनेवाला नील आदिकोंमें उत्पन्न हुआ अनुभव तो उनकी विकल्पवासनाओंका उद्बोधक हो जाता है, किन्तु क्षणिकत्व आदिका प्रकरण और प्रयोजन नहीं है । अतः क्षणिकपनेको जाननेवाला निर्विकल्पक ज्ञान उसकी वासनाका प्रबोधक नहीं होता है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना भी साररहित है । क्योंकि क्षणिकत्व आदि में भी उत्पन्न हुए उस अनुभवको प्रकरण और अर्थित्वकी अपेक्षासे सहितपना समानरूपसे विद्यमान है । कोई विशेषता नहीं है। दूसरी बात यह है कि क्षणिकत्व आदिमें प्रकरण और अर्थित्वके होनेपर भी अनुभवको उनके विकल्पज्ञानोंकी वासनाका उद्बोधपना नहीं है । इससे प्रतीत होता है कि नील, आदिकमें भी उन प्रकरण और अर्थित्वकी अपेक्षा रखते हुए निर्विकल्पक ज्ञानको भी उस वासनाका प्रबोधक कहना युक्तिसहित नहीं है। क्योंकि आप बौद्धोंके माने गये कार्यकारणभावमें व्यभिचारदोष देखा जाता है । कारण होनेपर कार्यका न होना यह अन्वयव्यभिचार लागू हुआ । व्यभिचारदोष लगजानेसे कोई कार्य समीचीन नहीं हो पाते हैं। नीलादौ दर्शनस्य सामर्थ्यविशेषस्तत्कार्येण विकल्पेनानुर्मायमानस्तद्वासनायाः प्रबोधको नाभ्यासादिति चेत् तर्हि सामर्थ्यविशेषार्थस्यैव साक्षाद्वयवसायेनानुमीयमानोव्यवसायस्य जनकोस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ?
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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