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तत्वार्थचिन्तामणिः
अवधि, मन:पर्यय, और मति, श्रुतज्ञानरूप प्रमाणका पूज्यपन होनेके कारण सूत्रमें पहिले वचनप्रयोग किया गया है ।
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ननु प्रमाणनयेभ्योऽधिगमस्याभिन्नत्वान्न तत्र तेषां करणत्व निर्देशः श्रेयानित्यारेकायामाह ;
यहां तर्क है कि प्रमाण और नयोंसे अधिगम होना जब अभिन्न है तो सूत्रमें उन प्रमाण नयोंको साधकतमरूप करणपनेसे तृतीयान्त कथन करना अच्छा नहीं है । अधिगमके समान प्रमाण नय भी प्रथमान्त होने चाहिये । इस प्रकार शंका होनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य स्पष्ट (टकासा ) उत्तर कहते हैं—
प्रमाणेन नयैश्चापि खार्थाकारविनिश्चयः ।
प्रत्येयोधिगमस्तज्ज्ञैस्तत्फलं स्यादभेदभृत् ॥ २८ ॥ तेनेह सूत्रकारस्य वचनं करणं कृतः ।
सूत्रे यदुघटनां याति तत्प्रमाणनयेरिति ॥ २९ ॥
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प्रमाण और नयों करके भी अपने और अर्थका उल्लेख करता हुआ ठीक निश्चय होता है। उन प्रमाण नयोंके वेत्ता विद्वानों करके उस निश्चयको ही अधिगम समझ लेना चाहिये । प्रमाण नयोंसे अभेदको धारण करनेवाला अधिगम उन प्रमाण नयोंका फल है । तिस कारण इस सूत्रमें सूत्रकार श्री उमास्वामीका वचन करणरूप कर दिया गया है। जिस प्रकार सूत्रमें घटित हो जाता है । उस प्रकार " प्रमाणनयैः " ऐसा तृतीयान्त निर्देश किया गया हैं । क्रियारूप फल प्रथमान्त होता है । उसका जनक तृतीयान्त होता है । भावार्थ – अग्निना दहरि, अग्निसे जलता है, यहां करणसे किया अभिन्न हो रही है । तैसे ही प्रमाण और नयोंसे अधिगम होना यहां भी करणसे फलरूप क्रिया कथंचित् अभिन्न है । किसी अपेक्षासे भिन्न भी है ।
न हि प्रमाणेन नयैश्वाव्यवसायात्माधिगमः कचित्संभाव्यः क्षणक्षयादावपि तत्प्रसंगात् । व्यवसायजननः स्वयमनध्यवसायात्माप्यधिगमो युक्त इति चेन्न, तस्य तज्जननविरोधात् स्वलक्षणवत् ।
बौद्धोंके प्रति आचार्य महाराज कहते हैं कि तुम्हारे मतमें प्रमाण और नयों करके निश्चय रूप अधिगम होना कहीं भी संभावित नहीं है। अन्यथा क्षणिकपने, स्वर्गप्रापणशक्ति आदिमें भी निश्चय हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । भावार्थ — बौद्धोंने निर्विकल्पक प्रमाण ज्ञानसे अनध्यवसाय रूप निर्विकल्पक ज्ञाप्ति होना ही इष्ट किया है । निर्विकल्पक प्रमाणोंसे निश्चयात्मक ज्ञप्ति होना असFra है । स्वलक्षण क्षणिकपनेका और दानी जीवकी स्वर्गप्रापणशक्तिका निश्चयात्मक ज्ञान नहीं
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