SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्याचन्तामाणः ३६१ यथाशिनि प्रवर्तस्य ज्ञानस्येष्टा प्रमाणता ॥ तथांशेष्वपि किं न स्यादिति मानात्मकों नयः॥१८॥ चौथी वार्तिकमें उठायी गयी शंकाका किया गया समाधान हमको सन्तोषजनक नहीं हुआ है । क्योंकि अंशीमें प्रवर्त रहे ज्ञानको प्रमाणपना जैसे इष्ट किया है, तिसी प्रकार अंशोंमें प्रवृत्त हो रहे नयज्ञानोंको भी स्वार्थ ग्राहकपना होनेसे प्रमाणपना क्यों न हो जावे । इस कारण नयज्ञान भी प्रमाणस्वरूप ही है । अंशीने भी वस्तुके पूरे शरीरका ठेका नहीं ले रखा है। वह अंशी भी तो वस्तुका एक कोण है, यह किसी तार्किकका आक्षेप है। __ यथांशो न वस्तु नाप्यवस्तु । किं तर्हि ? वस्त्वंश एवेति मतं, तथांशी न वस्तु नाप्यवस्तु तस्यांशित्वादेव वस्तुनोंशांशिसमूहलक्षणत्वात् । ततोशेष्विव प्रवर्तमानं ज्ञानमंशिन्यपि नयोस्तु नो चेत् यथा तत्र प्रवृत्तं ज्ञानं प्रमाण तथाशेष्वपि विशेषाभावात् । तथोपगमे च न प्रमाणादपरो नयोस्तीत्यरः।' ' ____ आप जैनोंने पांचवीं कारिकामें कहा था तदनुसार नयके द्वारा जाना गया अंश ही पूर्ण वस्तु नहीं है और वह अंश वस्तुका सर्वथा निषेधरूप अवस्तु भी नहीं है । तो क्या है ? इसका उत्तर यह है कि वह वस्तुका अंश ही है । इस प्रकार जैसे आप जैनोंका मन्तव्य है ।तिसी प्रकार यों भी कहो कि अंशी ही पूरा वस्तु नहीं है । और अवस्तु भी नहीं है । क्योंकि वह तो अंशी ही है जब कि इन अंगरूप प्रत्येक अंश और अंशियोंसे निराली अंश अंशियोंका समुदायस्वरूप ही पूर्ण वस्तु है । तिस कारण एक कोण अंशोंमें प्रवर्त रहा ज्ञान जैसे नय माना जाता है, वैसे ही वस्तुके अंशीमें भी प्रवर्त रहा ज्ञान नय हो जाओ! उसको बलात्कारसे प्रमाण क्यों कहा जाता है । यदि अंशीमें वर्त रहे ज्ञानको नय न कहोगे तो जैसे अंशीमें प्रवृत्त हों रहा ज्ञान प्रमाण माना जाता है, तिसी प्रकार अंशोंमें भी प्रवर्त रहा ज्ञान प्रमाण हो जाओ! उसको पक्षपात वश नय क्यों कहा जाता है क्योंकि वस्तुके अंगभूत अंश और अंशीके जाननेकी अपेक्षा इनमें कोई अन्तर नहीं है और ऐसी परिस्थिती हो जानेपर हमारे प्रभावमें आकर आप जैन यदि तिस प्रकार स्वीकार कर लोगे यानी एक एक अंशको जाननेवाले ज्ञानको भी प्रमाण मान लोगे तो प्रमाणसे भिन्न कोई दूसरा नय ज्ञान नहीं हो पाता है । इस प्रकार कोई दूसरा वादी आक्षेप कर रहा है। अब ग्रंथकार उत्तर देंगे कि तन्नांशिन्यपि निःशेषधर्माणां गुणतागतौ । द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपतः॥ १९ ॥ . धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विदः। . प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः ॥ २०॥
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy