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________________ तत्त्वार्यलोकवार्तिके जो तुम्हारा माना हुआ चैतन्यस्वरूप प्रतिभाससामान्य सर्वत्र अविच्छिन्नरूपसे रहनेवाला अनुगम स्वरूप है वह विशेष विशेष प्रकारोंके न होनेपर भला किससे जाना जा सकता है ? अर्थात् सभी प्रकार विशेषोंसे रीते उस चित्सामान्यका ज्ञान नहीं हो सकता है। जगत्में कोई भी पदार्थ विशेष अंशोंसे रहित नहीं है । " निर्विशेष हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्" केनचिद्विशेषेण शून्यस्य संवेदनस्यानुभवेऽपि विशेषान्तरेणाशून्यत्वान्न सकलविशेषविरहितत्वेन कस्यचित्तदनुभवः खरशृंगवत् । - किसी एक विशेषसे सर्वथा रहित संवेदनका अनुभव हो जानेपर भी अन्यविशेषोंसे वहां शून्यपना नहीं है कारण कि गर्दभके सींग समान सम्पूर्ण विशेषोंसे रहितपनेसे किसी भी पदार्थका वह समीचीन अनुभव नहीं हो सकता है। अर्थात् किसी न किसी विशेषसे सहित ( आक्रान्त ) ही सामान्यका संवेदन होता है विशेषोंसे रीता कोरा सामान्य खरविषाणके समान असत् है । नात्र संवेदनं किंचिदनशं बहिरर्थवत् । प्रत्यक्षं बहिरन्तश्च सांशस्यैकस्य वेदनात् ॥ १५ ॥ इस जगत्में बहिर्भूत अर्थके समान कोई भी संवेदन अंशोंसे रहित नहीं है। यानी नील, घट, आदि बहिरंग अर्थ जैसे अंशोंसे परिपूर्ण हैं उसी भान्ति अंतरंग ज्ञान, सुख, आदि भी अनेक स्वांशोंसे भरे हुए हैं। बहिरंग पदार्थ हो और चाहे अन्तरंग पदार्थ हो, एक सांशका ही प्रत्यक्षरूपसे ज्ञान हो रहा है । ऐसी दशामें ब्रह्माद्वैत भला कैसे ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं । विशेष अंशोंको मानना ही पडा जो कि अद्वैतका विरोधी है। यथैव हि क्षणिकमक्षणिकं वा नानैकं वा बहिर्वस्तु नानशं तस्य क्षणिकेतरात्मनो नानकात्मनश्च साक्षात् प्रतिभासनात् तथान्त संवेदनमपि तदविशेषात् । जिस ही प्रकार पर्यायार्थिक नयसे एक क्षणतक ठहरनेवाला क्षणिकरूप ·और नानारूप तथा द्रव्यार्थिक नयसे अक्षणिक और एकरूप बहिरंग वस्तु अंशोंसे रहित नहीं है। क्योंकि हम क्या करें । क्षणिक और इससे निराला अक्षणिकरूप तथा अनेक और एक स्वरूप तदात्मक हो रही उस बहिरंग वस्तुका प्रत्यक्षसे प्रतिभास हो रहा है । तिस ही प्रकार अन्तरंग संवेदन भी अनंश नहीं है । क्योंकि अन्तरंग और बहिरंग पदार्थोके अंशसहितपनेकी प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रतीति होनेमें कोई विशेषता नहीं है, समानता है। खांशेषु नांशिनो वृत्तौ विकल्पोपात्तदूषणम् । सर्वथार्थान्तरत्वस्याभावादंशांशिनोरिह ॥ १६ ॥
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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