________________
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
.
तदध्यवसायसे सहित करके वह ज्ञेयपनेका नियामकपना साधा जावेगा। अर्थात् विषयसे जन्य और विषयके आकारवाले निर्विकल्पक ज्ञानके उत्तरकालमें जिस विषयका निर्णयात्मक विकल्पकज्ञान उत्पन्न हो जायगा उसी विषयको निर्विकल्पकज्ञान जान सकेगा । समान अर्थके उत्तर समयवर्ती ज्ञानके पीछे परिशिष्ट सदृश पदार्थोका या उसके ज्ञानका अध्यवसाय करनेवाला विकल्पज्ञान नहीं उत्पन्न हुआ है। अतः वह सभी सदृश पदार्थो या ज्ञानको नहीं जान पाता है, इस प्रकार उक्त व्यभिचारोंका वारण हो जाता है। फिर भी भ्रान्त ज्ञानके अव्यवहित उत्तर समयवर्तीज्ञानसे व्यभिचार हो ही जावेगा । कामल या पीलिया रोगवाले पुरुषको शुक्ल शंखमें पैदा हुए पीलेपनके भ्रमज्ञानके पीछे उत्पन्न हुए उत्तरवर्तीज्ञानसे व्यभिचार है। वह ज्ञान शंखसे उत्पन्न हुआ है, शंखके आकारको भी लेता है और शंखका अध्यवसाय ( निर्णय ) करानेवाला भी है । उत्तरज्ञानमें पूर्वकालवर्ती भ्रान्तज्ञानका आकार पड गया है । और उत्तरवर्तीज्ञान उस पूर्ववर्ती भ्रान्तज्ञानको उपादान कारण मानकर उत्पन्न हुआ भी है । फिर उस भ्रमज्ञानसे शंखकी या उसके ज्ञानकी समीचीन ज्ञप्ति क्यों न मानी जावे, किन्तु शंखकी प्रमिति होती हुयी नहीं मानी गयी है। अतः सिद्ध होता है कि तज्जन्यपना, तदाकारपना और तदध्यवसायीपन ये तीनों मिलकर भी बुद्धिके द्वारा अनुभाव्यपनेका नियम नहीं करा सकते हैं । शुद्ध ज्ञानाद्वैतका पक्ष लेते हुये योगाचार बौद्ध कह रहे हैं कि वास्तवमें विचारा जाय तो एक बात यह भी है कि किसी भी क्षणिक परमाणुरूप विज्ञानको उस बुद्धिका कारणपना, आकार देनापना और निर्णय करानापन आदि ये सब धर्म असिद्ध हैं। अतः विषयविषर्याभाव वास्तविक नहीं है । केवल बुद्धि ( विज्ञान ) ही एक पदार्थ है । यहां सौत्रान्तिकोंके ऊपर जो दोष जैनोंकी ओरसे उठाये जाते हैं, योगाचार या शुद्धज्ञानाद्वैतवादी वैभाषिक भी उन्हीं दोषोंको ज्ञान ज्ञेय व्यवस्था माननेवाले सौत्रान्तिकोंके ऊपर उठा रहे हैं।
नापि समानकालस्तस्य स्वतन्त्रत्वात्, योग्यताविशेषस्यापि तद्व्यतिरिक्तस्यासम्भवात् तस्याप्यनुभाव्यत्वासिद्धेः, । परंण योग्यताविशेषणानुभाव्यत्वेनवस्थानात, प्रकारान्तरासम्भवाच्च ।
अभी विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ही अपना मत कह रहे हैं कि बुद्धिके आगे पीछे रहनेवाले भिन्न कालीन पदार्थ उस बुद्धिके द्वारा अनुभव कराने योग्य नहीं हैं । इसका विचार हो चुका । अब बुद्धिके समानकालमें रहनेवाला पदार्थ भी बुद्धिका अनुभाव्य नहीं है, इसका हम योगाचार बौद्ध खण्डन करते हैं । सौत्रान्तिकोने विषयको ज्ञानका कारण मानते हुए ज्ञेय और ज्ञानका पूर्वापरभाव माना है, सम नकालमें रहनेवाले दोनों पदार्थ अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न होकर वर्तमानमें स्वतन्त्र हैं ऐसी दशामें किसको विषयरूप कारण कहा जाय और किसको विषारूप कार्य कहा जाय ? कार्यको करते समय एक ( कारण ) स्वतन्त्र होय और दूसरा ( कार्य ) परतन्त्र होय तब कार्यकारण भाव माना गया है। सौत्रान्तिकोंने ज्ञाप्यज्ञापकभावमें भी यही व्यवस्था मानी है ।