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________________ ३४४ तचार्य लोकवार्तिके तो प्रमाणकी व्यवस्था नहीं बनती है । बौद्धोंसे माने गये ज्ञानस्वरूप सूक्ष्म परमाणुओंका ज्ञान तो होता नहीं है । ऐसी दशामें आप स्त्रसंवेदन को और उससे जानने योग्य विज्ञानको वस्तुभूत कैसे सिद्ध कर सकेंगे ? सोचिये ! न हि स्वसंविदि प्रतिभासमानस्य विज्ञानप्रचयस्य भ्रान्ततायां किञ्चित्स्व संवेदनमभ्रान्तं नाम यतस्तदेव प्रत्यक्षं सिद्धयेत्, विज्ञानपरमाणोः संवेदनं तदिति चेत् न, तस्य सर्वदाप्यमवेदनात् । सर्वस्य ग्राह्यग्राहकात्मनः संवेदनस्य सिद्धेः । स्वसंवेदन प्रत्यक्षमें स्पष्टरूपसे प्रतिभास रहे अंशीरूप विज्ञान समुदायको भ्रान्त माना जावेगा । तब तो ऐसे अन्धेर में कोई भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भला भ्रांतिरहित प्रमाणात्मक कैसे भी नहीं माना जा सकता है । जिससे कि योगाचार से माना गया वह स्वसंवेदन ही एक प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध हो सके। यहांपर बौद्ध यदि यों कहें कि क्षणिक विज्ञानके परमाणुका भले प्रकार स्वकीय ज्ञान होना ही वह स्वसंवेदनप्रत्यक्ष है । सो यह तो न कहना। क्योंकि उस विज्ञानके परमाणुका सब कालों में भी भली भांति ज्ञान नहीं होता है । सभी जीवोंके यहां ग्राह्य और ग्राहकरूप संवेदनकी सिद्धि हो रही है । भावार्थ - प्रत्येक ज्ञान अपने ग्राह्य स्वरूपके ग्राहक हैं । ग्राह्य अंश और ग्राहक अंशोंका समुदायरूप अंशी ज्ञान है । दीपक में प्रकाश्यपना और प्रकाशकपना दोनों अंश विद्यमान हैं । नाव स्वयं तैरती है तथा उसमें बैठे हुए अन्य जीवोंको भी तारती है । पाचक चूर्ण स्वयं पचता है और अन्य भुक्त पदार्थको भी पचाता है । निर्मली या फिटकिरी पानी में स्वयं नीचे बैठती है और मलको भी नीचे बैठा देती है । उक्त पदार्थोंमें दोनों शक्तियां विद्यमान हैं । तैसे ही ज्ञान में भी ज्ञापकपने और ज्ञेयपनेके दो स्वभाव विद्यमान हैं । यह सिद्धान्त सभी वादियोंको परिशेषमें स्वीकार करना पडता है । 1 1 स्यान्मतं, न बुद्धया कश्चिदनुभाव्यो भिन्नकालोऽस्ति सुप्रसिद्धभिन्न कालाननुभाव्यवत् । तस्य हेतुत्वेनाप्यनुभाव्यत्वसाधने नयना दिनानेकान्तात् । स्वाकारार्पणक्षमेणापि तेन तत्साधने समानार्थसमनन्तरप्रत्ययेन व्यभिचारात् तेनाध्यवसायसहितेनापि तत्साधने भ्रान्तज्ञानसमनन्तरप्रत्ययेनानेकान्तात् । तत्त्वतः कस्यचित्तत्कारणत्वाद्यसिद्धेश्व । इस प्रकरण में शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका सौत्रान्तिक बौद्धों द्वारा माने गये द्वैतवाद या ज्ञान ज्ञेयव्यवस्थाके खण्डनार्थ सम्भवतः यह मन्तव्य भी होवे कि उत्तरक्षणमें ज्ञानको उत्पन्न करनेवाला पूर्वक्षणवर्ती भिन्न कालमें रहनेवाला कोई भी पदार्थ बुद्धिके द्वारा अनुभव करने योग्य नहीं है । जैसे कि भले प्रकार प्रसिद्ध हो रहे चिरतर भूत, या भविष्यत् यों भिन्न कालोंमें रहनेवाले पदार्थ वर्तमान बुद्धिके ज्ञेय नहीं है, तैसे ही अव्यवहित पूर्वसमय में रहनेवाला जनक पदार्थ भी बुद्धिका ज्ञेय नहीं है। बुद्धि स्वयं बुद्धिको ही जानती रहती है, अन्यको नहीं । यदि उस पूर्व समयवर्ती विषयको बुद्धिका कारणपना होनेसे भी उसके द्वारा ज्ञेयपना साधोगे तो चक्षुः, पुण्य, पाप, आदिसे व्यभिचार दोष
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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