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तत्त्वार्यलोकवार्तिक
वह शङ्काकार भी प्रस्ताव किये गये विषयको नहीं समझ कर बोल रहा है। क्योंकि अभ्यास दशामें प्रमाण और नयोंका अपने आप अधिगम हो जाता है और अनभ्यास दशामें प्रमाण तथा नयोंकी दूसरे ज्ञापकोंसे ज्ञप्ति होती है, इस विषयको भविष्यमें स्पष्ट कहने वाले हैं । भावार्थ-ज्ञानमें प्रामाण्यकी उत्पत्ति तो निर्मलता, अविनाभावीपन, आदि अन्य कारणोंसे ही होती है, किन्तु प्रमाणपनेकी ज्ञप्ति अभ्यास दशामें स्वतः यानी ज्ञानके सामान्य कारणोंसे ही और अनभ्यास दशामें दूसरों यानी ज्ञानके सामान्य कारणोंसे अतिरिक्त निर्मलता आदि कारणोंसे होती हुई मानी गयी है । अपने परिचित घरमें अन्धकार होनेपर भी अभ्यासके वश अर्थोको जाननेवाले ज्ञानके प्रमाणपनेकी स्वतः ज्ञप्ति कर लेते हैं। किन्तु अपरिचित गृहमें अन्य कारणोंसे प्रामाण्यकी ज्ञप्ति होती है । यहां जिन ज्ञापक दूसरे कारणोंसे अधिगम होना माना है उनके प्रामाण्यको जाननेमें कहीं तो प्रथम कोटिमें ही अभ्यास होनेसे अपने आप अधिगम होना सिद्ध है । नहीं दूसरी, तीसरी, चौथी, कोटि पर तो अभ्यासदशाका प्रमाणपना मिल ही जाता है, अतः अनवस्थादोषका निवारण होगया । अर्थात् अपरिचित घरमें टिक टिक शब्द करनेसे घटयन्त्र ( व्यवहार समय घन्टा, मिनट, बतलानेवाली घडी ) का ज्ञान कर लेते हैं । यदि टिक टिक शद्बमें भी यों संशय हो जाय कि यह घडीका शद्ध है या किसी कीडेका शद्ध है ? तो दूसरा अभ्यास दशाका ज्ञान उठाकर टिकटिक शब्दके ज्ञानमें प्रामाण्य जान लिया जाता है। यदि किसीको यहां भी संशय हो जाय तो तीसरी, चौथी, कोटिपर अवश्य निर्णय हो जावेगा। ज्ञापक प्रकरणमें दूसरी, तीसरी, चौथी, श्रेणिपर कृतकृत्य हो जानेसे अनवस्था नहीं आती । व्यर्थमें संशय और जिज्ञासाओंको उठानेकी धुन रखना प्रशस्त नहीं है, ऐसा कौन ठलुआ बैठा है । जो कि अपने आप बारबार पांव धोनेके लिये अनेक बार कीचडको लगाता फिरे ? प्रामाण्यकी स्वतः ज्ञप्ति होनेपर उत्पत्ति और ज्ञप्तिमें समयभेद नहीं है, यानी इन्द्रियोंकी निर्मलता आदि कारणोंसे एकदम प्रामाण्यात्मक ज्ञान पैदा होकर उसी समय जान लिया जाता है । हां ! अन्य ज्ञापकोंसे प्रामाण्यकी ज्ञप्ति होनेपर उत्पत्ति और ज्ञप्तिमें समयभेद है, अर्थात् प्रामाण्यके अन्य कारणोंसे ज्ञानमें प्रमाणपना तो प्रथम ही उत्पन्न हो चुका था, किन्तु अभ्यास न होनेके कारण उसको जाननेमें विलम्ब हुआ । विशेष बात यह है कि ज्ञान और प्रमाणकी उत्पत्तिमें भी समयभेद नहीं है । जो कोई ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रमाण या अप्रमाणरूप ही उत्पन्न होता है । समीचीन कारणोंसे एकदम प्रमाणज्ञान ही उत्पन्न होगा और दूषित कारणोंसे अप्रमाणरूप ज्ञान प्रथमसे ही उत्पन्न होगा । ऐसा नहीं है कि पहिले सामान्य ज्ञान उत्पन्न हो जाय और पीछेसे वह प्रमाण या अप्रमाणरूप बनाया जाय । यदि सामान्यज्ञान भी होता तो अपने ज्ञान शरीरको तो अवश्य ही जान लेता, किन्तु क्या किया जाय, विशेषके विना कोई सामान्य अकेला होता नहीं है कोई भी ज्ञान होगा वह प्रथमसे ही प्रमाण या अप्रमाणस्वरूप होगा " निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत्"