________________
तत्वार्थ लोकार्तिके
लिये भी पुनः सम्बन्धान्तरोंकी आकांक्षा बढती जायेमी । यह अनवस्था दोष होगा । बहुत दूर भी जाकर विशेष्यविशेषणभावका दूसरे विशेष्यविशेषणंभावके विना भी यदि अपने विशेष्य विशेषण रूप विशेष्य आश्रयोंमें विशेषण हो जाना स्वीकार कर लोगे तब तो उसी प्रकार समवाय, अभाव और विरोधका भी विशेषणपना उस विशेष्यविशेषणभावके विना ही कहीं क्यों न मान लिया जाय ! यानी समवाय और अभावका सम्मेलन करानेवाले. विशेष्यविशेषणभावका स्वका ही रूप स्वरूप सम्बन्ध मान लोगे तो समवाय और अभावका भी अपना ही स्वरूप नामक स्वरूपसम्बन्ध क्यों नहीं मान लेते हो ? दूर तक सम्बन्धोंकी अनावश्यक लम्बी पूंछ बढानेसे क्या लाभ है ? ऐसी दशामें समवाय, स्वरूप, आदि सम्बन्धोंको भी विशेषणपना कहां आया ? वे अन्य सम्बन्धोंसे सम्बन्धियोंमें रहते तब तो विशेषण हो सकते थे, अन्यथा नहीं । इस प्रकार वैशेषिकोंके प्राण स्वरूप विशेषणविशेष्यभाव सम्बन्धकी सिद्धि नहीं हुयी और उस विशेषणविशेष्यभावके नहीं सिद्ध होनेपर कोई पदार्थ किसीका विशेषण नहीं हो सकता है । इस प्रकार विरोधियोंका विशेषण होकर विरोध पदार्थ सिद्ध नहीं होता है । फिर आपका “ तद्विशेषणत्वे सति " यह हेतु अंश सिद्ध न हुआ । असिद्ध हेतु तो साध्यको सिद्ध नहीं कर सकता।
विरोधप्रत्ययविषयत्वं तु केवलं विरोधमात्रं साधयेन पुनरनयोर्विरोध इति तत्पतिनियम, ततो न विरोधिभ्योऽत्यन्तभिन्नो विरोधोऽभ्युपगन्तव्यः । कथञ्चिद्विरोध्यात्मकत्वे "तु विरोधस्य प्रतिनियमसिद्धिर्न कश्चिदुपालम्भ इति सूक्तं विरोधवत्स्वाश्रयान्नामादीनां भिन्नाभिन्नत्वसाधनम् ।
___ वैशेषिकोंने भिन्न पडे हुए भी विरोधको विरोधियोंका विरोधकपना सिद्ध करनेके लिये उनका विशेषण होते हुए विरोधज्ञानका गोचरपना यह हेतु दिया. था। तहां उनका विशेषणपना इस अंशका तो खण्डन कर दिया गया है । अब हेतुके विशेष्यदल विरोधज्ञानका गोचरपनापर विचार करते हैं । वह विरोधज्ञानका गोचरपना तो केवल विरोधको साध सकेगा, किन्तु उन नियमित शीत
और उष्ण या अन्धकार और आतप इनका विरोध है, इस विशेष नियमको नहीं कह सकता है । रुपयेका ज्ञान रुपयेकी सिद्धि तो करा सकता है, किन्तु देवदत्तसे ही इन्द्रदत्तका ही रुपया आया है, इस विशेषताको सिद्ध नहीं कर सकता है । तिस कारण विरोधियोंसे सर्वथा भिन्न पडा हुआ विरोध नहीं स्वीकार करना चाहिये, वह कुछ कार्यकारी नहीं है । हां ! जैनसिद्धान्तके अनुसार विरोधको विरोधियोंसे कथञ्चित् तदात्मक मान लिया जायगा तब तो विरोधका अपने अपने विरोधियोंके साथ प्रतिनियम बन जाना सिद्ध हो जाता है, यानी ध्वंसकपना परिणामरूप विरोध शीतद्रव्यसे कथञ्चित् अभिन्न है और नष्ट हो जानापन रूप विरोध उष्ण द्रव्यका तदात्मक उत्तरवर्ती अभिन्न परिणाम है । कभी उष्णताकी तीव्रशक्ति होनेपर उष्णद्रव्यमें नाशकपना और शीतद्रव्यमें नाश्यपना रूप परिणतियां अभिन्न हो रही हैं । तुल्यबल विरोध होनेपर तो अग्निको नाश करनेवाला पानी भी