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________________ ३०१ तत्वार्थश्लोकवार्तिके विरोधियोंका विशेषण हो रहे व्यक्तिरूप अनेक विरोधविशेषोंमें व्यापनेवाला विरोधत्वसामान्य स्वीकार किया जावे । यानी भावपदार्थोंमें तो सामान्यपना और विशेषपना होता है, जैसे कि घटसामान्य ( घटत्व ) और घटविशेष ( व्यक्ति ) तथा रूपसामान्य रूपविशेष अथवा पृथिवीत्वसामान्यविशेष है। सत्ताकी अपेक्षा पृथिवीत्व विशेषजाति है और घटत्वकी अपेक्षा पृथिवीत्व सामान्यजाति है । किन्तु चारो ही अभावोंमें सामान्य और विशेष आपने नहीं माने हैं । द्रव्य, गुण और कर्ममें सामान्य रहता है और नित्य द्रव्योंमें विशेष रहता है । किसी किसी जातिमें आपेक्षिक सामान्यविशेष भाव है । ऐसी दशामें अभावरूप विरोधमें सामान्यविशेषभाव नहीं बन सकेगा, अतः आपके माने हुए छह भाव या चार अभावपदार्थोंमें विरोधका अन्तर्भाव नहीं हो सका। यदि पुनः षट्पदार्थव्यतिरेकात् पदार्थशेषो विरोधोऽनेकस्थः, स च विरोध्यविरोधकभावप्रत्ययविशेषसिद्धेः समाश्रीयते तदा तस्य कुतो द्रव्यविशेषणत्वम् ? न तावत् . संयोगात् पुरुषे दण्डवत्तस्याद्रव्यत्वेन संयोगानाश्रयत्वात्, नापि समवायादवि विषाणवत्तस्य द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषव्यतिरिक्तत्वेनासमवायित्वात् । न च संयोगसमवायाभ्यामसम्बन्धस्य विरोधस्य कचिद्विशेषणता युक्ता, सर्वस्य सर्वविशेषणानुषङ्गात् । यदि फिर कमर बांधकर सन्नद्ध हुए वैशेषिक यों कहें कि हमने मोक्षके विशेष उपयोगी होनेके कारण भावस्वरूप छह पदार्थ स्वीकार किये हैं, इनके अतिरिक्त भी अवच्छेदकत्व, अवच्छिन्नत्व, प्रतियोगिता आदि अनेक भाव शेष बच जाते हैं, तदनुसार पदार्थोसे अतिरिक्त शेष बचा हुआ पदार्थ विरोध है जो कि अनेक पदार्थोंमें स्थित रहता है । संसारमें कोई विरोध्य है । जैसे अन्धकार, चूहा, मृग, सज्जन, मिथ्यात्व, उपकारक आदि विरोध्य पदार्थ हैं और घाम, बिल्ली, सिंह, दुष्ट, सम्यक्त्व, कृतघ्न आदि विरोधक हैं और इस प्रकार विरोध्यविरोधक भावके ज्ञानविशेषसे सिद्ध हो जानेके कारण उस न्यारे विरोध पदार्थका भले प्रकार आश्रयण कर लिया जाता है । इसपर हम वैशेषिकोंसे पूछते हैं कि तब उस विरोधको द्रव्यका विशेषण कैसे कहोगे ? बताओ । संयोग या समवाय सम्बन्धसे सम्बन्धित होता हुआ जो पदार्थ विशेष्यको अपने रंगसे रंग देता है वह विशेषण कहा जाता है । तहां प्रथम ही पुरुषमें दण्डके समान संयोगसम्बन्धसे वह विरोन अपने विशेष्यभूत द्रव्यका विशेषण हो नहीं सकता है, क्योंकि दो द्रव्योंका ही संयोग सम्बन्ध माना गया है । जब कि विरोधद्रव्य पदार्थ नहीं है तो संयोग सम्बन्ध स्वरूप गुणका आश्रय नहीं होगा । अतः विरोध पदार्थ संयोग सम्बन्धसे द्रव्यमें नहीं रह सकता है द्रव्यमें न ठहरता हुआ द्रव्यका विशेषण कैसे होगा? अर्थात् नहीं। तथा गौमें सींगके समान द्रव्यमें विरोधका समवायसम्बन्ध मानकर विरोधको द्रव्यका विशेषण मानोगे, सो भी ठीक नहीं पडेगा, क्योंकि स्वरूपसम्बन्धस्वरूप अनुयोगिता और प्रतियोगितामेंसे चाहे किसी भी एक सम्बन्धसे द्रव्य, गुण और कर्मोंमें समवायसम्बन्ध ठहर जाता है, तथा केवल प्रतियोगिता सम्बन्धसे सामान्य और विशेषमें समवाय सम्बन्ध रहता है। समवाय पदार्थमें तो स्वयं समवाय
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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