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________________ . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ततो विरोधः कचित्ताविक एवाबाधितप्रत्ययविषयत्वादिष्टो वस्तुस्वभाववदिति विरोधिभ्यां भिन्नसिद्धेः। स भिन्न एव सर्वथेत्ययुक्तमुक्तोत्तरत्वात् । ताभ्यां भिन्नस्य तस्य विरोधकत्वे सर्वः सर्वस्य विरोधकः स्यादिति । तिस कारण सिद्ध हुआ कि किन्हीं विशिष्ट पदार्थोमें हो रहा विरोध वास्तविक ही है, क्योंकि वह विरोध निर्वाध ज्ञानके विषयपनेसे इष्ट किया है । जैसे कि वस्तुओंके स्वभाव परमार्थभूत हैं। अर्थात् जैसे अग्नि आदिके उष्णत्व, पाचकत्व, दाहकत्व, आदि स्वभाव वास्तविक हैं, क्योंकि वे कार्योको कर रहे हैं, तैसे ही अग्नि और जलमें या अन्धकार और आतपके बीचमें पडा हुआ विरोध परिणाम भी गस्तविक है । कल्पित नहीं । चींटियोंको रोकनेके लिये लड्डुओंसे भरे हुए पात्रके चारों ओर पानी कर दिया । ऐसी दशामें दो चार मूर्ख चींटियां तो आकर लौट जाती हैं। किन्तु हजारों चींटियां तो आती ही नहीं, क्योंकि लड्डुओंका परिणाम ही न्यारा हो गया है । जो लड्डू प्रथम पानीसे बाहिर थे और वे ही पानांसे भरे पात्रके भीतर अब रक्षित कर दिये हैं, परिस्थितिके परावर्तनसे उन लड्डुओंका परिणाम ही परावर्तित हो गया है । उसी बदले हुए परिणामका अपनी इन्द्रियोंसे मतिज्ञान और तज्जन्य श्रुतज्ञान कर अनेक चींटियां लड्डुओंके निकट आनेका परिश्रम नहीं करती हैं। प्रबलशत्रुसे मैदानमें घेर लिये गये राजाकी अपेक्षा खाई करके वेष्टित हो रहे किलेमें सुरक्षित बैठे हुये नृपकी परिणति कुछ तो निर्भय है हो । अभिप्राय यह है कि विरोधी पदार्थाका प्रकरण मिलनेपर उनमें भिन्न भिन्न परिणाम हो जाते हैं । जीरा और हींगडा मिला देनेसे दोनोंकी गन्ध मारी जाती है । औषधि रोगको दूर कर देती है, साथमें स्वयं भी निःसार हो जाती है । इस प्रकार अनुयोगी और प्रतियोगीरूप दोनों विरोधियोंसे विरोध पदार्थ कथञ्चित् भिन्न सिद्ध है। परिणामीसे परिणाम कथञ्चित् भिन्न होता है । वह विरोध सभी प्रकारोंसे भिन्न ही है, यह वैशेषिकोंका कहना तो युक्त नहीं है। क्योंकि इसका उत्तर हम पहिले कह चुके हैं। यानी उदासीन पडे हुए भिन्न पदार्थोके समान पृथक् पडा हुआ विरोध भी विरोधक न हो सकेगा, अथवा भिन्न पडे हुये विरोधके समान चाहे जो भी भिन्न पदार्थ विरोधक बन बैठेगा। तथा विरोधियोंसे सर्वथा ही भिन्न उस विरोधको यदि विरोधक मानोगे तब तो सभी पदार्थ सबके विरोधक हो जायेंगे, अपनेसे भिन्न पदार्थोंका मिल जाना सर्वत्र सुलभ है यह हम कह चुके हैं। ननु चान्तरभूतोऽपि विरोधिनोविरोधको विरोधः तद्विशेषणत्वे सति विरोधप्रत्ययविषयत्वात्, यस्तु न तयोर्विरोधकः स न तथा, यथापरोर्थः ततो न सर्वः सर्वस्य विरोधक इति चेन्न, तस्य तद्विशेषत्वानुपपत्तेः । विरोधो हि भावः स चातुच्छस्वभावो यदि शीतोष्णद्रव्ययोर्विशेषणं तदा सकृत्तयोरदर्शनापत्तिः । अथ शीतद्रव्यस्यैव विशेषणं तदा तदेव विरोधि स्यान्नाष्णद्रव्यम् । तथा च न द्विष्ठोऽसौ एकत्रावस्थितेः । न चैकत्र विरोधः सर्वदा तत्प्रसंगात् । एतेनोष्णद्रव्यस्यैव विरोधी विशेषणं इत्यपि निरस्तम् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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