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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
एकत्रार्थे विरोधश्चेन्नामादीनां सहोच्यते । नैकत्वासिद्धितोऽर्थस्य बहिरन्तश्च सर्वथा ॥ ८३॥
एक पदार्थमें नाम आदिकोंके साथ रहनेका यदि विरोध कहोगे, सो तो नहीं कहना चाहिये क्योंकि बहिरंग और अन्तरंग अर्थोंमें सभी प्रकारोंसे एकपनेकी असिद्धि है । भावार्थ-ज्ञान, आत्मा, सुख आदि अन्तरंग पदार्थ तथा घट, अग्नि, पाषाण, आदि बहिरंग पदार्थ अनेक स्वभाववाले हैं। अतः न्यारे न्यारे स्वभावोंसे एक अर्थमें सभी नाम आदिक एक साथ सप्रसाद ठहर जाते हैं । ____ न हि बहिरन्तर्वा सर्वथैकस्वभावं भावमनुभवामो नानकस्वभावस्य तस्य प्रतीते - धकाभावात् । न च तथाभूतेर्थे, येन स्वभावेन नामव्यवहारस्तेनैव स्थापनादिव्यवहरणं तस्य प्रतिनियतस्वभावनिबन्धनतयानुभूतेरिति कथं विरोधः सिद्धयेत् ?
इस कारिकाकी टीका यों है कि बहिरंग अथवा अन्तरंग सम्पूर्ण पदार्थोंका एक ही स्वभावसे युक्तपना हम नहीं जान रहे हैं, किंतु अनेक, एक, स्वभावोंसे युक्त उन पदार्थोकी प्रतीति हो रही है । पदार्थोके अनेक स्वभावरूप प्रधान धर्मको जाननेवाली उस प्रतीतिका कोई बाधक नहीं है। तिस प्रकार अनेक एक स्वभावोंसे तदात्मक परिणपे हुए अर्थमें जिस स्वभाव करके नाम व्यवहार है, उस ही करके स्थापना आदिका व्यवहार नहीं है, क्योंकि उन नाम, स्थापना, द्रव्य, आदि व्यवहारों से प्रत्येकके लिये नियत न्यारे न्यारे स्वभावोंको कारणपनेकी प्रतीति हो रही है । यानी नाम आदि प्रत्येकका कारण न्यारा न्यारा वस्तुमें स्वभाव पड़ा हुआ है नाम निक्षेपकी योग्यतारूप स्वभाव न्यारा है और स्थापना निक्षेपकी योग्यतारूप स्वभाव वस्तुमें निराला है । वस्तुमें अनन्तानन्त स्वभाव हो जानेका भय नहीं करना चाहिये । देवदत्तकी भोजन क्रियाके अत्यल्पकालमें भी अनेक स्वभाव माने विना कार्य नहीं चल सकता है । रोटी, दाल, खिचडी आदिको खानेके लिये न्यारी न्यारी आकृति और भिन्न भिन्न प्रयत्न करने पडते हैं । हलुआ खानेके ढंगरूप स्वभावसे सुपारी नहीं खायी जा सकती है और दूध पीनेके प्रयत्नरूप स्वभावसे मोदक नहीं खाया जा सकता है। कार्यमें थोडीसी भी विशेषता कारणोंके विशिष्ट स्वभावों विना नहीं आसकती है । अतः भिन्न भिन्न स्वभावों करके ही एक वस्तुमें नाम आदिका व्यवहार अनुभूत हो रहा है तो फिर इस कारण नाम आदिकोंका विरोध कैसे सिद्ध होगा ? अर्थात् नहीं। " यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकं स्वभावभेदाः" प्रत्येक वस्तुसे जितने भी छोटे बडे अनेक कार्य होरहे हैं उतने उसके असंख्य स्वभाव हैं ।
किञ्च नामादिभ्यो विरोधोनन्योऽन्यो वा स्यादुभयरूपो वा ?
शंकाकारके प्रति आचार्य दूसरी बात यह भी कहते हैं कि आप नाम, स्थापना, आदिकोंका परस्परमें विरोध मानते हैं, यानी एक समय एक पदार्थमें नाम आदिक चारों निक्षेपक विरोध होनेके