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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
क्योंकि यहां अत्यन्त संक्षेपसे उस न्यासका निरूपण करना हमको इष्ट नहीं है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकार अतिसंक्षेपसे न्यासका निरूपण किया जाय तो वह द्रव्य और भावरूपसे दो प्रकारका ही निक्षेप होवे । हमको इष्ट है, कोई क्षति नहीं है।
. न ह्यत्रातिसंक्षेपतो निक्षेपी विवक्षितो येन तद्विविध एव स्याद्रव्यतः पर्यायतश्चेति तथा विवक्षायां तु तस्य द्वैविध्ये न किञ्चिदनिष्टम् । संक्षेपतस्तु चतुर्विधोऽसौ कथित इति सर्वमनवद्यम् । - इस प्रकरणमें हमको अत्यन्तसंक्षेपसे निक्षेप कहना विवक्षित नहीं है जिससे कि द्रव्यसे और पर्यायसे यों वह दो प्रकारका ही है, ऐसे कहा जाता । हां ! तिस प्रकार विवक्षा होनेपर तो उस निक्षेपको दो प्रकार कहनेमें हमको कोई अनिष्ट नहीं है । संक्षेपसे तो वह निक्षेप चार प्रकारका कहा गया है । इस प्रकार सम्पूर्ण सूत्रका मन्तव्य निर्दोष रूपसे सिद्ध हो गया । अर्थात् अत्यन्त संक्षेपसे निक्षेप दो प्रकारका है और संक्षेपसे चार प्रकारका तथा विस्तारसे संख्यात, असंख्यात अनन्त प्रकारका है।
ननु न्यासः पदार्थानां यदि स्यान्न्यस्यमानता ।
तदा तेभ्यो न भिन्नः स्यादभेदाद्धर्मधर्मिणोः ॥ ७३ ॥
किसीकी शंका है कि न्यासका अर्थ यदि पदार्थोकी न्यस्यमानता है तब तो न्यास उन पदार्थोसे भिन्न नहीं होना चाहिये, क्योंकि धर्म और धर्मीमें अभेद होता है । भावार्थ-जैसे पाकका अर्थ पच्यमानता माना जाय । चावलोंमें पाक होता है । चावल पकते हैं । पच्यमानता चावलोंका धर्म है। कर्ममें यक् प्रत्यय करके शानच् करते हुए तल् प्रत्यय किया गया है। किसी अपेक्षासे वह्निमत्ता और वह्नि जैसे एक हैं तैसे ही कर्ममें रहनेवाले न्यास और न्यस्यमानता भी एक हो सकते हैं । धर्म और धर्मीका अभेद माननेपर तो न्यासको प्राप्त किये गये न्यस्यमान पदार्थ और न्यासका भेद नहीं हो सकेगा तो फिर नाम आदिसे जीव आदि पदार्थोका न्यास होता है। यह भेद गर्मित सूत्रवाक्य कैसे घटित हुआ ? यह शंका करनेवालेका भाव है ।
भेदे नामादितस्तस्य परो न्यासः प्रकल्प्यताम् । तथा च सत्यवस्थानक स्यात्तस्येति केचन ॥ ७४॥
धर्म और धर्मीका भेद माननेपर उस न्यासका नाम आदिकसे फिर दूसरा न्यास कल्पना करना चाहिये और इसी प्रकार भेद पक्षमें वह न्यास पुनः न्यस्यमान हो जावेगा। उसके लिये