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________________ २८० तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके बताओ :- इसपर आचार्य कहते हैं कि इस शंकाका उत्तर हम इस प्रकार स्पष्ट कहते हैं कि उन नाम और स्थापनामें भी प्रवृत्त हुए समयसे प्रारम्भ कर विराम ( विसर्जन ) से पहिले तक अन्वयीपना विद्यमान है, अन्वयीपना द्रव्यनिक्षेपका प्राण है । नाम और स्थापनामें वह अन्वयीपना असिद्ध नहीं है । देखिये ! देवदत्त, इन्द्रदत्त, इत्यादि नामोंका किन्हीं व्यक्तियोंमें बालक, कुमार, युवा आदि अवस्थाओंके भेदसे भिन्न होते हुए भी विच्छेद होना नहीं बनता है, तभी तो अपनेको पूर्वदृष्टकी स्मृति और दूसरेको एकत्वप्रत्यभिज्ञान हो जाते हैं। अतः नाममें अन्वयर्यापना सिद्ध हो गया। अर्थात् जबसे किसीका नाम देवदत्त रख लिया जाता है मरनेतक और उसके पीछे भी यह वही देवदत्त है, वह देवदत्त था, ऐसे अन्वयरूप ज्ञान हो जाते हैं। बीचमें लडीका डोरा टूटता नहीं है। द्रव्यनिक्षेपको इतना ही द्रव्यपना चाहिये । तथा क्षेत्रपाल, यक्ष, इन्द्र, आदिकी स्थापनाका कालभेद होते हुए भी तिस प्रकार स्थापनापनेका अन्तराल नहीं पडता है, पाषाणके बने हुए स्थापित क्षेत्रपालमें " यह वही है, यह वही है ” इस प्रकारके अन्वयज्ञानकी विषयता होनेसे अन्वयीपना बहुत काल तक धारारूपसे चलता रहता है । यह विषय द्रव्यार्थिक नयका ही व्यवहार्य है। यदि पुनरनाद्यनन्तान्वयासत्त्वान्नामस्थापनयोरनन्वयित्वं तदा घटादेरपि न स्यात् । तथा च कुतो द्रव्यत्वम् ? व्यवहारनयात्तस्यावान्तरद्रव्यत्वे तत एव नामस्थापनयोस्तदस्तु विशेषाभावात् । ___ यदि फिर शंकाकार थों कहे कि अनादिसे अनन्तकालतक अन्वय नहीं बननेके कारण नाम और स्थापनामें अन्वयीपना नहीं है, अतः वे द्रव्यार्थिक नयके विषय नहीं हो सकते हैं, ऐसा कहोगे तब तो घट, मनुष्य, आदिको भी धाराप्रवाहरूप अन्वयीपना न हो सकेगा । और तैसा होनेपर फिर घट आदिको भला द्रव्यपना कैसे आवेगा? बताओ ! अर्थात् कुछ कालतक अन्वय बन जानेके कारण अशुद्धद्रव्यार्थिक नयके विषय मनुष्य, पट, आदि हो जाते हैं । मनुष्य पर्याय तो सौ, पांच सौ वर्ष, कोटि पूर्व, तीन पल्य तक ही ठहर सकती है। अनादिकालसे अनन्तकाल तक नहीं । यदि द्रव्यमें अनादिसे अनन्ततक अन्वय बने रहनेका नियम कर दिया जावेगा तो मनुष्यको द्रव्यपना न ठहर सकेगा । इसी प्रकार कुछ दिनों या वर्षांतक ही ठहरनेवाले घट, पट, आदिक भी अशुद्धद्रव्य न बन सकेंगे । यदि व्यबहार नयकी अपेक्षासे उन घट, पट, आदि कुछ दीर्घकालस्थायी स्थूल पर्यायोंको अनादि अनन्त महाद्रव्यका व्याप्य अवान्तर विशेष द्रव्य मानोगे तो तिस ही कारण नाम और स्थापनाको भी वह व्याप्य द्रव्यपना हो जाओ ! घट आदिक और नाम, स्थापना इनमें विशेष द्रव्यपनेसे कोई अन्तर नहीं है। अल्प देश, कालमें रहनेवाले द्रव्यपनेसे घट, नाम आदिमें अन्वयीस्वरूप द्रव्यपना एकसा रक्षित है । ततः सूक्तं नामस्थापनाद्रव्याणि द्रव्यार्थिकस्य निक्षेप इति । भावस्तु पर्यायार्थिकस्य सांप्रतिकविशेषमात्रत्वात्तस्य ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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