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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २७५ तदेवेदानी परिसमाप्ततत्त्वज्ञानस्य वर्तत इति वर्तमानज्ञायकशरीरे तावदन्वयप्रत्ययः । यदेवोपयुक्ततत्वज्ञानस्य मे शरीरमासीत्तदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्येत्यतीतज्ञायकशरीरे प्रत्यवमर्शः। यदेवाधुनानुपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य शरीरं तदेवोपयुक्ततत्त्वज्ञानस्य भविष्यतीत्यनागतज्ञायकशरीरे प्रत्ययः। किसीकी शंका है कि आपके पूर्वविवरणके अनुसार बाधारहित उसके अन्वयज्ञानसे मुख्य आगमद्रव्य तो भले ही सिद्ध हो जाओ, किन्तु तीनों कालमें ठहरनेवाला ज्ञायकशरीर और कर्म नोकर्मके भेदोंसे अनेक प्रकारका तद्यतिरिक्त भला कैसे तिस प्रकार मुख्य सिद्ध होवेगा ? बताओ। क्योंक उसकी बाधारहित कोई प्रतीति नहीं हो रही है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, कारण कि वहां भी तिस प्रकार अनेक भेदोंको लिये हुए अन्वयज्ञान विद्यमान है। तत्त्वोंको जाननेके लिये आरम्भ करनेवाले मेरा जो ही शरीर पहिले था, वही तो इस समय तत्त्वज्ञानको भली भांति समाप्त करनेवाले मेरा शरीर वर्त रहा है, इस प्रकार वर्तमानके ज्ञायक शरीरमें तो अन्वयप्रत्यय यानी यह वही है, यह वही है, ऐसा ज्ञान विद्यमान है । और तत्त्वज्ञान करनेमें उपयोग लगाये हुए मेरा जो ही शरीर पहिले था वही इस भोजन करते समय तत्त्वज्ञानमें नहीं उपयोग लगाये हुए मेरा यह शरीर है, इस प्रकार भूतकालके ज्ञायकशरीर में प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। तथा इस वाणिज्य करते समय तत्त्वज्ञानमें नहीं उपयोग लगा रहे मेरा जो भी शरीर है, पीछे तत्त्वज्ञानमें उपयुक्त हो जाने पर वही शरीर रहा आवेगा, इस प्रकार भविष्यके ज्ञायकशरीरमें सुन्दर अन्वयज्ञान हो रहा है । __ तर्हि ज्ञायकशरीरं भाविनोआगमद्रव्यादनन्यदेवति चेत्र, ज्ञायकविशिष्टस्य ततोऽन्यत्वात् तस्यागमद्रव्यादन्यत्वं सुप्रतीतमेवानात्मत्वात् । तब तो भाविनोआगम द्रव्यसे ज्ञायकशरीर अभिन्न ही हुआ यह कटाक्ष तो नहीं करना, क्योंकि उस ज्ञायक शरीरसे ज्ञायक आत्मा करके विशिष्ट हो रहा भावि नोआगमद्रव्य भिन्न है और वह ज्ञायकशरीर आगमद्रव्यसे तो भिन्न भले प्रकार जाना ही जा रहा है। कारण कि आगमके ज्ञानके उपयोगरहित आत्माको आगमद्रव्य माना है, जो आगमको जाननेवाला आगे होवेगा वह भावी है और जीवके जड शरीरको ज्ञायकशरीर माना गया है। अतः आत्मास्वरूप चेतन न होनेके कारण ज्ञायकशरीर. आगमद्रव्यसे भिन्न ही है। ___ कर्म नोकर्म वान्वयमत्ययपरिच्छिन्नं ज्ञायकशरीरादनन्यदिति चेत् न, कार्मणस्य शरीरस्य तैजसस्य च शरीरस्य शरीरभावमापन्नस्याहारादिपुद्गलस्य वा ज्ञायकशरीरत्वासिद्धः, औदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरत्रयस्यैव ज्ञायकशरीरत्वोपपत्तेरन्यथा विग्रहगतावपि जीवस्योपयुक्तज्ञानत्वप्रसंगात् तैजसकार्मण शरीरयोः सद्भावात् ।। यहां कोई पुनः कहता है कि तयतिरिक्तके कर्म और नोकर्म भेद भी अन्वयज्ञानसे जाने जाते हैं। अतः ये दोनों ज्ञायकशरीरसे अभिन्न हो जायेंगे। ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह तो नहीं
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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